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________________ ३९४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ (८) पन्न-प्राज्ञ बना हुआ भिक्षु जब कुछ भी बातचीत नहीं करता, ऐसे निर्लोभ श्रमण की भूमिका पन्न है। इसके पश्चात् मोक्ष प्राप्ति की संभावना है।१ । इन आठ भूमिकाओं के स्वरूप को जानने से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि ये न तो आत्मा से सम्बद्ध बताई गई हैं, और न ही कर्म के संयोग-वियोग से सम्बन्धित। पहली पांच भूमिकाएँ शारीरिक एवं भौतिक विकास की सूचक हैं, छठी से लेकर आठवीं तक की भूमिका भी स्पष्टतः आध्यात्मिक विकास की सूचक नहीं है, क्योंकि घर-बार छोड़ने मात्र से, तथा गुरुकुल में शिक्षण प्राप्त करने मात्र से. अथवां तथाकथित प्रखर बौद्धिक या तार्किक बन जाने मात्र से कोई व्यक्ति अध्यात्म विकास की उच्च, भूमिका को तब तक उपलब्ध नहीं कर सकता, जब तक कि वह विषयविकारों, राग-द्वेषों तथा कषाय-नोकषायों का उत्तरोत्तर क्षय करने का पुरुषार्थ न करे। - यद्यपि योगवाशिष्ठ, पातंजलयोग, बौद्ध और आजीवकमत की आत्मविकास के लिए मानी जाने वाली भूमिकाओं में जैनदर्शन के गुणस्थानों जैसी क्रमबद्धता और स्पष्ट स्थिति नहीं है; तथापि इनका प्रासंगिक संकेत इसलिए किया गया है, ताकि मुमुक्षु साधक पूर्वजन्म-पुनर्जन्म तथा इहलोक-परलोक मानने वाले दर्शनों द्वारा प्ररूपित आत्मविकास की क्रमिक अवस्थाओं की जानकारी करके जैन कर्मविज्ञानप्ररूपित आत्मा की कर्मबद्ध अवस्थाओं को उत्तरोत्तर पार करके कर्ममुक्त अवस्था को प्राप्त कर सके। १. (क) मज्झिमनिकाय; सुमंगल विलासिनी टीका, (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (मरुधरकेसरी), पृ० ३३, ३४ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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