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________________ विविध दर्शनों में आत्मविकास की क्रमिक अवस्थाएँ ३९३ इनमें प्रथम अंधपुथुज्जन आध्यात्मिक अविकास काल की अवस्था है। द्वितीय कल्याणपुथुजन अवस्था में विकास का अल्पांशतः स्फुरण होता है; किन्तु इसमें विकास की अपेक्षा अविकास का ही विशेष प्रभाव रहता है। तीसरी से छठी तक चार अवस्थाएँ आध्यात्मिक विकास की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि की हैं। और वह विकास छठी 'अरहा' अवस्था में पूर्ण होता है। इसके पश्चात् निर्वाण की स्थिति बनती है। आजीवक मत का प्रवर्तक मंखलिपुत्र गोशालक भगवान् महवीर का प्रतिद्वन्द्वी हुआ है, उसने अवश्य ही आत्मविकास की क्रमिक अवस्थाओं को बताने हेतु कुछ परिकल्पना की होगी। परन्तु इसका कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है। फिर भी बौद्धग्रन्थों में आजीवकमत-प्ररूपित आध्यात्मिक विकास के ८ सोपान इस प्रकार बतलाये गए हैं-(१) मन्दा, (२) खिड्डा, (३) पद वीमंसा, (४) उज्जुगत, (५) सेक्ख, (६) समण, (७) जिन और (८) पन्न। , मज्झिमनिकाय की सुमंगलविलासिनी टीका में इन आठों का स्वरूप इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है (१) मंदा-जन्मदिन से लेकर सात दिन तक गर्भ-निष्क्रमणजन्य दुःख के कारण प्राणी मन्दस्थिति में रहता है, उसे मन्दा कहते हैं। (२) खिड्डा-दुर्गति से आकर जन्म लेने वाला बालक पुनः-पुनः रुदन करता है और सुगति का स्मरण कर हास्य एवं क्रीड़ा करता है। यह खिड्डा (क्रीड़ा) भूमिका ___ (३) पद-वीमंसा-माता-पिता के हाथ या अन्य किसी के सहारे से बालक का धरती पर पैर रखना पदवीमंसा है। (४) उज्जुगत-पैरों से स्वतंत्र रूप से चलने की क्षमता प्राप्त करना। . (५) सेक्ख-शिल्प, कला आदि के प्रशिक्षण के समय की शिष्य-भूमिका या शैक्ष-अवस्था। __ (६) समण-घर-बार, कुटुम्ब-कबीला आदि छोड़कर संन्यास ग्रहण करना श्रमण-भूमिका है। . (७) जिन-आचार्य की उपासना करके ज्ञान प्राप्त करने की भूमिका। १. द्वितीय कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (मरुधरकेसरीजी), पृ० ३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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