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________________ गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३६३ तथा वीर्योल्लास की मात्रा में कुछ वृद्धि होती है। ऐसी स्थिति में उस विकासगामी आत्मा के परिणामों की शुद्धि एवं कोमलता भी यत्किचित बढ़ती है। जिसकी बदौलत वह राग-द्वेष की दुर्भेद्य एवं तीव्रतम ग्रन्थी को तोड़ने का बार-बार प्रयत्न करता है। बीच-बीच में मोहकर्मवश आहत होकर गिरता है, परन्तु पुनः प्रयत्न करता यद्यपि मोक्षप्राप्ति के लिए अयोग्य पात्ररूप, अभव्यजीव भी अनिच्छा से यथाप्रवृत्तिकरण कर लेता है, किन्तु आगे नहीं बढ़ पाता। मोक्ष-प्राप्ति के योग्य भव्यात्मा भी यदि आगे के अपूर्वकरण आदि न करे तो पूर्वकृत यथाप्रवृत्तिकरण भी निष्फल जाता है। भव्य कहलाने वाले जीव ने भी अनन्तकाल में ऐसे यथाप्रवृत्तिकरण भी अनन्त बार कर लिये, किन्तु ग्रन्थि भेद न कर सकने के कारण वापस लौट कर जहाँ का तहाँ पूर्ववत् रागादिबन्धन में जकड़ कर पुनः कर्मबन्ध की उत्कृष्ट स्थितियाँ बांधने लग जाता है। और मिथ्यात्व पुनः तीव्रगाढ़ हो जाता है। इसी कारण दिगम्बर परम्परा में इसे अथाप्रवृत्तकरण तथा अध:करण कहा गया है। यथाप्रवृत्तिकरण के दो प्रकार : सामान्य और विशिष्ट इसीलिए आचार्यों ने यथाप्रवृत्तिकरण दो प्रकार बताये हैं-(१) सामान्य और (२) विशिष्ट या पूर्वप्रवृत्त यथाप्रवृत्तिकरण। जिस करण के बाद निश्चित रूप से अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की प्राप्ति होती है, ऐसे यथाप्रवृत्तिकरण को पूर्वप्रवृत्त-विशिष्ट यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। आशय यह है कि ऐसे यथाप्रवृत्तिकरण को करने वाला अवश्य ही ग्रन्थि भेद करके अन्य करणों को करता हुआ आगे बढ़कर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है। वस्तुतः ऐसा यथाप्रवृत्तिकरण ही आत्मोन्नति या १. (क) परिणामविशेषोऽत्र करणं प्राणिनां मतम्। -लोकप्रकाश सर्ग ३/५९९ ___. (ख) यथाप्रवृत्तकरणं नन्वानाभोगरूपकम्। भवत्यनाभोगतश्च, कथं कर्मक्षयोऽङ्गिनाम् ॥ ६०७॥ यथामिथोघर्षणेन ग्रावाणोऽद्रिनदीगताः । स्युश्चित्राकृतयो ज्ञानशून्या अपि स्वभावतः॥ ६०८॥ तथा यथाप्रवृत्तात् स्युरप्यनाभोगलक्षणात् । लघुस्थितिक कर्माणो जन्तवोऽत्रान्तरेऽथ च ॥ ६०९॥ -लोकप्रकाश सर्ग ३ (ग) कर्म तेरी गति न्यारी भा. १ से भावांश ग्रहण, पृ. ७४, ७५ (घ) चतुर्थ कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (पं. सुखलालजी), पृ. १८ २. (क) कर्म तेरी गति न्यारी, भा. १, पृ. ६९ • (ख) 'अथाप्रवृत्तकरण' के स्वरूप के लिए देखें, 'तत्त्वार्थ सूत्र राजवार्तिक अ. ९, सू. १, वा. १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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