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________________ ३६२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ होती है। किले पर चढ़ने के समान अपूर्वकरण होता है तथा किले पर पहुँच कर वहाँ से उड़ जाने की तरह अनिवृत्तिकरण होता है। यथाप्रवृत्तिकरण का परिष्कृत रूप शारीरिक और मानसिक दुःखों तथैव भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि दुःखों को परवश होकर अज्ञात-अनाभोगरूप से भोगने (सहन करने) से गिरिनदीपाषाण न्याय से अकामनिर्जरा होने से आत्मा पर लगा कर्मों का आवरण कुछ हलका (शिथिल) होता है। यद्यपि पराधीनतावश बिना इच्छा के, बिना जाने-समझे यह अकामनिर्जरा होती है, जिससे परिणामों में कुछ कोमलता और शुभाशयता बढ़ती है। अतः जैसे वह जीव कर्मक्षय की प्रवृत्ति पहले करता था, वैसे ही विशेषरूप से कर्मक्षय-प्रवृत्ति करने हेतु आगे बढ़ना-यथाप्रवृत्तिकरण है। संक्षेप में, अनादिकाल से कर्म बांधने और खपाने की प्रवृत्ति को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। अज्ञानपूर्वक की हुई कर्म-निर्जरा से भी कर्मों की स्थितियाँ कम होती हैं। जैसे 'घुण' नामक कीड़ा लकड़ी पर रेंगता और उसे कुतरता हुआ एक सिरे से दूसरे सिरे तक आता-जाता रहता है। उस समय. अनजाने में ही बिना जाने-सोचे, उस काष्ठ पर अ, इ, उ, क आदि अक्षर बन जाते हैं। इसी घुणाक्षर न्याय की तरह बिना इच्छा के, बिना सोचे-समझे अनजाने में जो कर्मों की निर्जरा हो जाती है, उस अकाम निर्जरा के अनाभोगिक परिणामों को यथाप्रवृत्तिकरण कहा गया है। गिरि-नदी-पाषाणन्यायवत् आत्मपरिणामों की स्वल्प शुद्धि - इस विषय में दूसरा उदाहरण 'गिरि-नदी-पाषाण' का दिया जाता है। पहाडी नदी के तीव्र प्रवाह के साथ कई छोटे-बड़े पत्थर घिसटते-बहते चले जाते हैं। यद्यपि वे पत्थर अपनी ओर से कुछ भी प्रयत्न नहीं करते, तथापि पानी के प्रवाह के साथ परस्पर टकराते और घिसते-घिसते कोई-कोई पत्थर एक दिन गोल और मनोरम्य बन जाता है। ठीक इसी प्रकार मिथ्यात्व दशा में पड़ा हुआ जीव रूपी पाषाण, स्वयं स्वेच्छा से, समझ-बूझ कर कोई भी प्रयत्न विशेष नहीं करता, किन्तु मनस्तरंग रूपी प्रवाह में आकर दुःखों, कष्टों और विपदाओं से संघर्ष करता-टकराता हुआ, सहता हुआ चतुर्गतिक संसार रूपी नदी के प्रवाह के साथ चक्कर लगाता-लगाता एक दिन इस योग्य हो जाता है कि वह शुभ परिणामवश अकाम निर्जरा कर लेता है, कर्मों की स्थिति घटा लेता है। ऐसे परिणामपूर्वक की गई प्रक्रिया को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। दूसरे शब्दों में, इस अज्ञान-पूर्वक दुःख-संवेदना-जनित अत्यन्त अल्प आत्मशुद्धि को यथाप्रवृत्तिकरण कहा जाता है। इसके कारण आत्मा पर छाया हुआ कर्मों का गाढ़ आवरण शिथिल होता है। मिथ्यात्व को मन्द करता है। उस जीव के अनुभव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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