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________________ ३६० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ दर्शनमोहमुक्तिपूर्वक सम्यक्त्वप्राप्ति के लिए त्रिकरण करना अनिवार्य . यथाप्रवृत्तिकरण आदि तीन करणों के बिना ग्रन्थिभेद का और सम्यक्त्व को पाने का कार्य सफलतापूर्वक नहीं हो सकता। इसलिए ग्रन्थि भेद के इस प्रबल पुरुषार्थ के लिए विकासगामी आत्मा तीन करण करते हैं-(१)यथाप्रवृत्तिकरण, (२) अपूर्वकरण और (३)अनिवृत्तिकरण। क्योंकि विकासोन्मुखी आत्मा का साध्य- मोक्ष है; कर्ममुक्ति है। मोहकर्म सब कर्मों में प्रबल है। उसका शमन, क्षपण किये बिना अन्य कर्मों से मुक्त होना असम्भव है। सम्यक्त्व मोक्षप्रासाद का द्वार है। उसे पाने के लिए सर्वप्रथम तीन करण करना अनिवार्य है। करण का अर्थ यहाँ परिणाम विशेष, आत्मा का अध्यवसाय विशेष या आत्मबल का प्रकटीकरण है। आत्मा के अध्यवसाय, भाव या विचार परिणाम हैं। आत्मा अनादिकालीन मिथ्यात्व को क्रमशः मन्द, मन्दतर करने तथापरिपक्व तथाभव्यता के कारण कर्ममुक्ति की दिशा में अग्रसर होने हेत् प्रधमावस्था में मोक्ष के मुख्य द्वार- सम्यक्त्व तक पहुँचने के लिए क्रमशः यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करना अनिवार्य है। अनादिकालिक कर्मों के क्षय के लिए उद्यत आत्मा अध्यवसाय-विशेषवश पहले यथाप्रवृत्तिकरण करता है। जिसके जरिये आत्मा को कर्मग्रन्थि तोड़ने के लिए ग्रन्थि के समीप लाने का काम होता है। तत्पश्चात् जिस शक्ति का पहले प्रयोग नहीं किया गया, उस अपूर्व आत्मशक्ति का प्रयोग करके स्थितिघात रसघात आदि करने का अध्यवसाय करता है-अपूर्वकरण। और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति न होने तक परिणाम पुनः गिर न जाएँ, अर्थात्-निवृत्त न हो जाए, आत्मा का ऐसा परिणामविशेष अनिवृत्तिकरण द्वारा होता है। तीनों करणों में से अभव्य जीव के तो सिर्फ पहला करण ही होता है। वह इससे आगे कदापि नहीं बढ़ पाता। जबकि भव्य जीवों के लिए तीनों ही करण आगे बढ़ने में अनिवार्य होते हैं। (पृष्ठ ३५९ का शेष) चौररुद्धस्तु स ज्ञेयस्तादृग् रागादिबाधितः। ग्रन्थि भिनत्ति यो नैव, न चाऽपि वलते ततः ॥ ६२४॥ स त्वभीष्टपुरं प्राप्तो योऽपूर्वकरणाद् द्रुतम् । रागद्वेषावपाकृत्य, सम्यग्दर्शनमाप्तवान् ॥ ६२५॥ १. (क) करणं अहापवत्तं अपुव्वमनियट्टिमेव भव्वाणं । इयरेसिं पढमं चिय अन्नइ करणंति परिणामो ॥ (ख) जा गंठी ता पढमं गंठिं समइच्छाओ अपुव्वं तु । अनियट्टीकरणं पुण सम्मत्त पुरक्खडे जीवे ॥ -लोकप्रकाश सर्ग ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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