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________________ गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३५९ तीन व्यापारी मित्रों के समान तीन करणों का स्वरूप __इस रूपक को इस प्रकार घटित किया गया है- घने जंगल के समान यह संसार है। दो चोर हैं- राग और द्वेष। चोरों की जंगल में छिपने जैसी जगह है- कर्मग्रन्थि (गांठ) प्रदेश। तथा तीन मित्रों के समान तीन प्रकार के जीव होते हैं। पहले मित्र की तरह कतिपय जीव ऐसे होते हैं, जो रागद्वेष की दुर्भेद्य सघन ग्रन्थि को देखते ही वापस लौट जाते हैं या भाग खड़े होते हैं। दूसरे प्रकार के मित्र के समान कई जीव ऐसे होते हैं, जो घबरा कर रागद्वेष ग्रन्थि की शरण स्वीकार कर लेते हैं, और हिम्मत हार कर ग्रन्थि-प्रदेश के पास बैठे रहते हैं। जबकि कुछ भव्य जीव साहसी, निर्भय और आत्मबली होते हैं, वे तीसरे मित्र के समान दुर्भेद्य राग-द्वेष-ग्रन्थि को अनिवृत्तिकरण के बल से भेदकर इन दोनों राग-द्वेषचोरों को परास्त करके आगे बढ़ जाते हैं, और सम्यक्त्व अभीष्ट पुर को प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु होते हैं, ऐसे पराक्रमी जीव विरले ही। लोकप्रकाश में भी इसी रूपक द्वारा तीन करणों का स्वरूप समझाया गया है। तीन मित्रों के स्वाभाविक पराक्रम जैसा ही पराक्रम इन तीनों विकासगामियों का क्रमशः यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के बल से होता है। पहले यात्री के समान रागद्वेष को परास्त करने हेतु आगे बढ़कर भयंकरता तथा कठिनाई देखकर पीछे हटने वाला यथाप्रवृत्तिकरण है। इस प्रकार पराक्रम करते-करते ग्रन्थिप्रदेश के समीप लाने वाला अपूर्वकरण है। उत्साह और साहस के साथ प्रबल संघर्ष करके रागद्वेषरूपी चोरों के अपूर्वकरण के बल से शीघ्र परास्त करके आगे बढ़कर अभीष्ट स्थान-सम्यक्त्वनगर तक पहुँचाने वाला अनिवृत्तिकरण है ।१.०. १. (क) कर्म तेरी गति न्यारी से भावांशग्रहण, पृ. ६७, ६८ (ख) यथा जनास्त्रयः केऽपि, महापुरं पिपासुवः। प्राप्ताः क्वचन कान्तारे, स्थानं चौरेः भयंकरम् ॥ ६१९॥ तत्र द्रुतं द्रुतं यान्तो, ददृशुस्तस्करयम्॥ तदृष्ट्वा त्वरितं पश्चादेको भीतः पलायितः ॥ ६२० ।। गृहीतश्चापरस्ताभ्यामन्यस्त्ववगणम्येतौ । भयस्थानमतिक्रम्य पुरं प्राप पराक्रमी ॥ ६२१॥ दृष्टान्तोपनश्चात्र, जना जीवा भवोऽटवी । पन्थाः कर्मस्थितिम्रन्थि, देशस्त्विह भयास्पदम् ॥ ६२२ ॥ रागद्वेषौ तस्करौ द्वौ, तभीतो वलितस्तु सः॥ - ग्रन्थिं प्राप्याऽपि दुर्भावाद्यो ज्येष्ठस्थितिबन्धकः ॥६२३ ॥ (शेष पृष्ठ ३६० पर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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