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________________ ३५६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ चरम-पुद्गलपरावर्त काल को धर्म-यौवनकाल भी कहते हैं। इस धर्म यौवनकाल में जीव तथाभव्यत्व दशा परिपक्व होने के कारण दुःखरूप संसार से मुक्त होने के शुभ परिणाम से नैतिकता युक्त व्यवहार धर्म के सम्मुख होकर ग्रन्थिभेद करने हेतु प्रवृत्त होता है। दर्शनमोह की तीव्र एवं गाढ़ गांठ : कितनी दुर्भेद्य, कैसे सुभेद्य ? जिस प्रकार गन्ने या बांस के संधि-स्थल पर थोडी-थोडी दरी पर जो गांठ होती है, वह अत्यन्त कठोर एवं दुर्भेद्य होती है। बांस के मूल में दीर्घकाल से रहीं हुई गांठ तो और भी कठोर एवं निबिड़ होती है। ठीक इसी तरह मोहनीय आदि कर्मों की तीव्रता के कारण आत्मा पर रागद्वेष की सुदृढ़ गांठ (ग्रन्थि) बंध जाती है, जिसे. तोड़ना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। इसी तथ्य को विशेषावश्यक भाष्य में उजागर करते हुए कहा है- राग-द्वेष (या कषायादि) के तीव्र परिणामस्वरूप आत्मा पर जो तीव्र कर्मबन्ध जनित गांठ बंध जाती है, वह बांस की संधि में पड़ी हुई गांठ के सदृश : अत्यन्त कठोर निविड़ एवं दुर्भेद्य होती है। वस्तुतः वह गांठ और कुछ नहीं, अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क तथा दर्शनमोहनीय त्रिक की ही है, जो दीर्घकाल से मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती आत्मा में पड़ी हुई है। जिस प्रकार बैलगाड़ी के पहिये का काला कीट यदि वस्त्र पर लग जाए और उस पर धूल चिपक जाए तो वह दब जाता है, सहसा मालूम ही नहीं होता। वह काला दाग इतना गाढ़ होता है कि वस्त्र फट जाए, तो भी नहीं निकलता। ठीक इसी तरह आत्मप्रदेशरूपी पट पर तीव्र एवं निबिड़ गांठ रागद्वेषादि की अत्यन्त मलिन कर्मपरिणति रूप कीट के दाग की सुदृढ़ गांठ बंध जाती है। फिर उस पर कर्मबन्ध की उत्कृष्ट स्थिति रूप धूल जम जाने से चिरकाल तक जीव को पता ही नहीं चलता। ऐसी तीव्र कर्मग्रन्थि के कारण जीव अनन्तानुबन्धी कषायादि राग-द्वेष-मोह की वृत्ति-प्रवृत्ति में दीर्घकाल तक पड़ा रहता है। मिथ्यात्व के उदय वाले तीव्र राग द्वेष का काल का फलितार्थ ही ग्रन्थि(गांठ) बंधना है।३ १. अचरमो परिअट्टेसु कालो भवबालकाल सो भणिओ । चरमो अ धम्म-जुव्वणकालो, तह चित्त भेओत्ति ॥ ता बीअ पुव्वकालो णेओ भवबालकाल एवेह । इयरो उ धम्मजुव्वणकालो विहिलिंग वामुत्ति । २. कर्म की गति न्यारी भा. १, पृ. ६५, ६६. ३. (क) कर्म की गति न्यारी भा. १ (पंन्यास अरुणविजयजी गणि) से भावांश ग्रहण, पृ. ६२,७३ (ख) गंठि त्ति सुदुब्भेओ कक्खड-घण-रूढ-गूढ-गंठिव्व। जीवस्स कम्मजणिओ घण-राग-दोस-परिणामो ॥ १९५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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