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________________ गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३५५ श्रेणी का होता है। ऐसे तथाभव्यत्व वाला भव्यजीव संसारक्षय एवं मोक्षप्राप्ति के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने के योग्य हो जाता है। परिपक्व तथाभव्य ओघदृष्टि से योगदृष्टि की ओर ऐसा परिपक्व तथाभव्य जीव चरमावर्त में प्रविष्ट होकर शुभ अध्यवसायों की ओर अग्रसर होता है। ऐसी स्थिति में उसकी अनादिकालिक ‘ओघ' दृष्टि छूट जाती है, और वह 'योग' दृष्टि प्राप्त कर लेता है। मित्रा एवं तारा दृष्टि के आश्रय से वह स्वल्पमात्र बोध प्राप्त करता है। मिथ्यादृष्टि होते हुए भी स्वल्पमात्र बोधप्राप्ति प्रथम गुणस्थानवर्ती ऐसे अनेक विकासगामी जीव (आत्मा) होते हैं, जो रागद्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा-सा दबाये हुए होते हैं, परन्तु मोह की प्रधान शक्तिदर्शनमोह को शिथिल किये हुए नहीं होते। इसलिए यद्यपि वे आध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वथा अनुकूलगामी नहीं होते, तो भी उनका बोध तथा नैतिक चारित्र अन्य अविकसित आत्माओं की अपेक्षा अच्छा ही होता है। यद्यपि ऐसे जीवों (आत्माओं) की आध्यात्मिक दृष्टि सर्वथा आत्मोन्मुख न होने से वास्तव में कहलाती मिथ्यादृष्टि, विपरीतदृष्टि या असत्दृष्टि ही है। स्वल्पमात्र बोध के कारण श्रवण सम्मुख और धर्मसम्मुख होता है । 'स्वल्पमात्र बोध के कारण उस जीव की धर्म-श्रवण करने की जिज्ञासा जागृत होती है। मन में उद्भूत इस धर्मश्रवण एवं दुःखनिवृत्ति की शुभभावमयी जिज्ञासा काल को 'धर्मश्रवण सम्मुखीकाल' कहा गया है। यह धर्मसम्मुखीकरण काल का प्रथम सोपान है। प्रथम श्रवणसम्मुख होने के बाद ही जीव धीरे-धीरे व्यावहारिक धर्मसम्मुख होता जाता है। इस तरह जीव में आत्मा की सर्वोत्कृष्ट शक्ति के प्रगट करने के लिए परिणामों में विशुद्धि आती है और वह चरमावर्तकाल में ही मार्गानुसारी बनकर कुछ धर्मलक्षी नैतिकता के गुणों को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता है। यद्यपि विशुद्ध धर्मी वह नहीं बन पाता, तथापि धर्ममार्ग (नैतिकता गुणयुक्त व्यवहार धर्म पथ) का अनुसरण करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। इस काल को धर्मसम्मुखीकरणकाल, या धर्मप्रवेशोन्मुख काल कहा जा सकता है। कतिपय. आचार्य इससे पूर्व के अनन्तपुद्गल परावर्तकाल को 'संसारबाल काल' और इस . २. चतुर्थ कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं. सुखलालजी), पृ. १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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