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________________ गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३५१ ‘गोम्मटसार' और 'षट्खण्डागम' धवलावृत्ति में गुणस्थानों को 'जीवसमास' भी कहा गया है। धवला में इसका समाधान करते हुए कहा गया है- जीव समास का व्युत्पत्तिलस्य अर्थ है - 'जीव इनमें सम्यक् रूप से रहते हैं। किनमें? गुणों में । गुण कौन-कौन से हैं? गुण पाँच हैं - (१) औदयिक - कर्म के उदय से उत्पन्न गुण, (२) औपशमिक-कर्म के उपशम से उत्पन्न गुण, (३) क्षायिक - कर्म के क्षय से उत्पन्न गुण, (४) क्षायोपशमिक - कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न गुण, और (५) पारिणामिक-कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना जो गुण स्वभावतः पाया जाता है। इन गुणों के साहचर्य से 'जीवसमास' को गुणस्थान का पर्यायवाची कहा गया है। चौदह गुणस्थानों के नाम वे जीवस्थान या गुणस्थान क्रमशः कर्म-विशुद्धि मार्गणा को लेकर १४ हैं - (१) मिथ्यादृष्टि, (२) सासादन - सम्यग्दृष्टि, (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र), (४) अविरति सम्यग्दृष्टि, (५) . देशविरति, ( 6 ) प्रयत्त - संयत, (७) अप्रमत्तसंयत, (८) निवृत्तिबादर (अपूर्वकरण), (९) अनिवृत्तिबादर ( अनिवृत्तिकरण), (१०) सूक्ष्मसम्पराय, (११) उपशान्तमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगिकेवली और (१४) अयोगिकेवली । R (क) संखेओ ओघोत्ति य, गुणसण्णा सा च मोह-जोग - भवा । (ख) गुणट्ठाणा य जीवस्स । (ग) जेहिं तु लक्खिंज्जंते, उदयादिसु, संभवेहिं भावेहिं । जीवा ते गुण सण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं ॥ - गोम्मटसार गा० ८ - गोम्मटसार गा० १० (घ) चउंद्दस जीवसमासा कमेण सिद्धा यं णादव्वा। (ङ) जीवसमास इति किम् ? जीवाः सम्यगासतेऽस्मिन्निति जीव- समासः । क्वासते ? | के गुणाः ? औदयिकौपशमिक - क्षायिक- क्षायोपशमिक-पारिणामिका इति गुणाः । अस्य गमविपाकर्मणामुदयादुत्पन्नो गुणः औदयिकः, तेषामुपशमादौपशमिकः, क्षयात् क्षायिकः, तत्क्षयादुपशमाच्चोत्पन्नो गुणः क्षायोपशमिकः । कर्मोदयोपशम-क्षय-क्षयोपशममन्तरेणोत्पन्नः पारिणामिकः । गुण-सहचरित्तत्वादात्मापि गुण - संज्ञा प्रतिलभते । - षट्खण्डागम, धवला वृत्ति, प्रथम खण्ड २ / १६ / ६१ २. (क.) मिच्छे- सासण-मीसे अविरयदेसे पमत्त - अपमत्ते । नियट्टि - अनियट्टि - सुहमुवसम - खीण- सजोगि- अजोगि गुणा । Jain Education International - गोम्मटसार गा.-३ - समयसार For Personal & Private Use Only - कर्मग्रन्थ भा० २ गा० २ · (शेष पृष्ठ ३५२ पर) www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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