SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ इन प्रतिबन्धक काषायिक संस्कारों के स्थूल दृष्टि से ४ विभाग किये गए हैं। ये विभाग उन कषायचतुष्टयी संस्कारों की विपाक शक्ति (उदयादि) के तरतमभाव पर निर्भर हैं। उनमें से पहला विभाग अनन्तानुबन्धी कषाय तथा दर्शनमोह का है, जो दर्शन शक्ति का प्रतिबन्धक है। शेष तीन विभाग चारित्र शक्ति के क्रमश: प्रतिबन्धक हैं। उन्हें क्रमशः अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषाय कहते. हैं। दुःख से पूर्णमुक्ति के हेतु रत्नत्रयोपलब्धि के लिए १४ सोपान संसार में जन्म-जरा-रोग-मरणादि के चक्र में फँसा हुआ प्राणी विविध दुःखों से पीड़ित होकर बार-बार संसाराटवी में संसरण (परिभ्रमण ) करता है । इस दुःख से मुक्ति कैसे हो ? वास्तव में दुःखों से पूर्ण मुक्ति के लिए अर्हन्तों ने रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग का निरूपण किया है। उक्त रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की क्रमशः विशुद्धि के लिए महापुरुषों ने १४ सोपानों पर आरोहण करने का विधान किया। जिन १४ सोपानों पर क्रमशः आरोहण करना पड़ता है, उसे गुणस्थान संज्ञा दी है। ? गुणस्थान के ओघ, संक्षेप, गुण, जीवस्थान और जीवसमास नाम भी यही कारण है कि आगम में कषाय और योग के कारण जीव के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ाव को 'गुणस्थान' कहा गया है। दिगम्बर परम्परा के ‘गोम्मटसार' आदि में 'गुणस्थान' के अर्थ में 'ओघ', 'संक्षेप' और 'गुण' शब्दों का प्रयोग किया गया है। और उसकी उत्पत्ति मोह और योग से होती है, यह, बताया गया है। जीवों को गोम्मटसार में 'गुण' कहा गया है। उसके अनुसार औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये पांच गुण हैं। इन गुणों के साहचर्य से 'जीव' को भी 'गुण' कहा गया है। उत्तरवर्ती जैन साहित्य 'समवायांग' में कर्मग्रन्थोक्त 'गुणस्थान' के स्थान पर जीवस्थान का प्रयोग किया गया है। 'गोम्मटसार' में इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि 'जीव गुण है'। तदनुसार चौदह जीवस्थान कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि भावाभाव-जनित अवस्थाओं से निष्पन्न होते हैं। परिणाम (गुण) और परिणामी (जीव) का अभेदोपचार करने से 'जीवस्थान' को 'गुणस्थान' की संज्ञा दी गई है। १. कम्म - विसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जींवठाणा पण्णत्ता । कर्म-विशोधि-मार्गणां प्रतीत्यं - ज्ञानावरणादि-कर्म-विशुद्धि-गवेषणामाश्रित्य । २. जैनदर्शन में आत्मविचार से भावांश ग्रहण, पृ० २५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only -समवायांग १४/१ -समवायांग वृत्ति पत्र २६ www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy