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________________ मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व-कथन २९१ मिथ्यात्व में पहला, सास्वादन में दूसरा और मिश्र में तीसरा गुणस्थान होता है। अतः इन तीनों का सामान्य और विशेष रूप से बन्धस्वामित्व इस-इस गुणस्थान के बन्धस्वामित्ववत् समझना चाहिए। अर्थात्-सामान्य और विशेष रूप से मिथ्यात्व में ११७, सास्वादन में १०१ और मिश्र गुणस्थान में ७४ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व होता है। (११) आहारक-मार्गणा में बन्ध-स्वामित्व-प्ररूपणा आहारक उसे कहते हैं, जो समय-समय में आहार करे। जितने भी संसारी जीव हैं, वे जब तक अपनी-अपनी आयु के कारण संसार में रहते हैं, अपने-अपने योग्य कर्मों का आहरण करते रहते हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा पहले गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक के सभी जीव आहारक (आहारी) हैं, और इन सब जीवों का ग्रहण आहारक मार्गणा में किया जाता है; क्योंकि मोक्ष न होने से पूर्व तक सभी संसारी जीव इसमें आ जाते हैं। अतः इस मार्गणा में पहले से लेकर १३वें गुणस्थान तक १३ गुणस्थांन हैं। इस मार्गणा में सामान्य से तथा प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान बन्ध-स्वामित्व समझना चाहिए। अनाहारक मार्गणा पहले, दूसरे, चौथे, तेरहवें और चौदहवें, इन ५ गुणस्थानों में पाई जाती हैं। अतः इस मार्गणा में बन्धस्वामित्व कार्मण काययोग-मार्गणा के समान जानना चाहिए। .. इनमें से पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन गुणस्थान उस समय होते हैं, जब जीव दूसरे स्थान में पैदा होने के लिए विग्रहगति से जाते हैं। उस समय एक, दो या तीन समय पर्यन्त जीव को औदारिक आदि स्थूल शरीर नहीं होने से अनाहारक अवस्था रहती है। तथा तेरहवें गुणस्थान में केवलि-समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में अनाहारकत्व रहता है। चौदहवें गुणस्थान में योग का निरोध (अभाव) हो जाने से किसी तरह का आहार सम्भव नहीं है। इसलिए उक्त ५ गुणस्थानों में अनाहारक मार्गणा मानी जाती है.। फलतः अनाहारक मार्गणा में ४ गुणस्थान बंध की अपेक्षा से बताये गए हैं, एक गुणस्थान अबन्धक है। अतः १. उवसम्मि वढ्ता आयु न बंधंति तेष अजयगुणे। देव-मणुयाउ-हीणो देसाइसु पुण सुराउ विणा॥ २०॥ -तृतीय कर्मग्रन्थ २. (क) सव्व-गुण-भव्व-सन्निसु ओहु अभव्व असन्नि मिच्छसमा।। .. सासणि असन्नि सन्नि व्व कम्मभंगो अणाहारे॥ २३॥ -तृतीय कर्मग्रन्थ (ख) तृतीय कर्मग्रन्थ गा. २३ विवेचन (मरुधर केसरी) से सारांश ग्रहण, पृ. ९५ से ९९ तक क . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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