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________________ २९० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ उपशम सम्यक्त्व दो प्रकार का है-ग्रन्थिभेदजन्य और श्रेणिगत। ग्रन्थिभेदजन्य उपशम सम्यक्त्व चौथे से सातवें गुणस्थान तक होता है, और श्रेणिगत होता है, आठवें से ग्यारहवें तक। इस प्रकार उपशम-सम्यक्त्व ४+४=८ गुणस्थानों में होता है, चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक कुल आठ गुणस्थान होते हैं। इस सम्यक्त्व के दौरान आयु का बन्ध नहीं होता। चौथे गुणस्थान में देवायु और मनुष्यायु का, पांचवें आदि गुणस्थानों में देवायु का बन्ध नहीं होता। अतएव इस सम्यक्त्व में सामान्यरूप से ७५ प्रकृतियों का तथा चौथे गुणस्थान में ७५, पाँचवें में ६६, छठे में ६२, सातवें में ५८, आठवें में ५८/५६/२६, नौवें में २२/२१/२०/१९/१८, दसवें में १७ और ग्यारहवें गुणस्थान में १ प्रकृति का बन्ध होता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का दूसरा नाम वेदक सम्यक्त्व है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी उदयप्राप्त मिथ्यात्व का क्षय और अनुदय-प्राप्त का उपशम करता है। यह सम्यक्त्व चौथे से सातवें तक ४ गुणस्थानों में होता है। इसमें आहारकद्विक का बन्ध भी सम्भव है। अतः इसका बन्ध-स्वामित्व सामान्य से ७९ प्रकृतियों का, तथा विशेषरूप से चौथे गुणस्थान में ७७, पांचवें में ६७, छठे में ६३ और सातवें में ५९ या ५८ प्रकृतियों का है। इसके पश्चात् श्रेणद्वय आरम्भ हो जाता है। इस कारण उपशम श्रेणि में उपशम सम्यक्त्व और क्षपकश्रेणि में क्षायिक सम्यक्त्व होता है। क्षायिक सम्यक्त्व निष्पन्न होता है-संसार के मूल कारणभूत त्रिविध दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय से। इस सम्यक्त्व में चौथे से लेकर चौदहवें तक ग्यारह गुणस्थान होते हैं। इसमें आहारकद्विक का बन्ध हो सकता है। इसलिए सामान्यरूप से इसका बन्धस्वामित्व ७९ प्रकृतियों का और गुणस्थानों की अपेक्षा से प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान है। यानी चौथे गुणस्थान में ७७, पाँचवें में ६७, छठे में ६३, सातवें में ५९ या ५८, आठवें में ५८/५६/२६, नौवें में २२/२१/२०/१९ और १८, दसवें में १७ तथा ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें में एक प्रकृति का बन्ध होता है और चौदहवाँ अयोगि-केवली गुणस्थान अबन्धक होता है। मिथ्यात्वत्रिक यानी मिथ्यात्व, सास्वादन और मिश्र, ये तीनों सम्यक्त्व-मार्गणा के अवान्तर भेद हैं। इनमें अपने-अपने नाम का एक-एक गुणस्थान होता है। अर्थात् १. (क) उवसमे वटुंता चउण्हमिकपि आउयं नेय। बंधंति तेण अजया सुर-नर-आउहिं अणं तु॥ ओघो देसज़याइसु सुराउहीणो उ जाव उवसंतो॥ -बन्धस्वामित्व गा. ५१, ५२ (ख) अणबंधोदयमाउगबंधं कालं च सासणो कुणई। उवसम सम्मदिट्ठी चउण्हमिकंपि नो कुणई॥ -मोम्मटंसार कर्मकाण्ड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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