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________________ मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व- कथन २६३ अज्ञान और विभंगज्ञान, इन तीन अज्ञानों (मिथ्याज्ञानों) में पहले दो तीन गुणस्थान पाये जाते हैं । (८) संयम - सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयम में प्रमत्तसंयत आदि चार गुणस्थान, परिहार - विशुद्धि संयम में प्रमत्तसंयत आदि दो गुणस्थान, सूक्ष्म- सम्पराय संयम में अपने नाम वाला दसवाँ गुणस्थान, यथाख्यात - चारित्र में अन्तिम चार (ग्यारहवाँ से चौदहवाँ ) गुणस्थान, तथा देशविरत संयम में अपने नाम वाला पंचम देशविरत गुणस्थान है और अविरति में आदि के चार गुणस्थान पाये जाते हैं। (९) दर्शन - चक्षु - अचक्षु-दर्शन में आदि के बारह गुणस्थान पाये जाते हैं । अवधिदर्शन में चौथे से लेकर बारहवें तक नौ गुणस्थान तथा केवलदर्शन में अन्तिम दो गुणस्थान पाये जाते हैं। . (१०) लेश्या -कृष्ण, नील और कापोत इन तीन लेश्याओं में आदि के ६ गुणस्थान, तेज और पद्म लेश्या में आदि के ७ गुणस्थान तथा शुक्ल लेश्या में पहले से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक तेरह गुणस्थान होते हैं। (११) भव्य - भव्य जीवों में चौदह गुणस्थान होते हैं। अभव्य जीवों के सिर्फ प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान होता हैं। (१२) सम्यक्त्व - उपशम - सम्यक्त्व में चौथे से लेकर ग्यारहवें तक ८ गुणस्थान होते हैं । वेदक ( क्षायोपशमिक ) सम्यक्त्व में चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक चार गुणस्थान, क्षायिक सम्यक्त्व में चौथा आदि ११ गुणस्थान होते हैं। मिथ्यात्व में पहला, सास्वादन में दूसरा और मिश्रदृष्टि में तीसरा गुणस्थान होता है। (१३) संज्ञी - संज्ञी जीवों के एक से लेकर चौदह तक सभी गुणस्थान होते हैं, . किन्तु असंज्ञी जीवों के आदि के दो गुणस्थान होते हैं। (१४) आहारक - आहारक जीवों के पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर • तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान पर्यन्त १३ गुणस्थान होते हैं। अनाहारक जीवों के पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवाँ और चौदहवाँ, ये ५ गुणस्थान होते हैं। इस प्रकार संक्षेप में मार्गणाओं के नाम, लक्षण, कार्य और उनके अवान्तर भेदों की संख्या तथा नाम आदि बताकर चौदह मार्गणाओं में से किसमें कितने गुणस्थान पाये जाते हैं? इसका निरूपण किया गया है। (क) तृतीय कर्मग्रन्थ, गा. १ विवेचन, पृ० ९-१० (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. १० से १४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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