SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मार्गणास्थान द्वारा संस्री जीवों का सर्वेक्षण - १ २१९ हिताहित का परीक्षण - अन्वीक्षण किये बिना ही सहसा कार्य करने की आदत हो जाती है, ऐसी दुर्वृत्तियुक्त परिणामों का नाम कृष्णलेश्या है । १ २. नील लेश्या - अशोकवृक्ष के समान नीले रंग के लेश्या जातीय पुद्गलों के संसर्ग से आत्मा में ऐसे परिणाम उत्पन्न होते हैं, जिनसे ईर्ष्या, असहिष्णुता, अहंताममता, एवं माया (छल-कपट ) होने लगते हैं, निर्लज्जता या धृष्टता आ जाती है, विषयों की लालसा प्रबल रूप से प्रदीप्त हो उठती है, रस-लोलुपता पद-पद पर परिदृष्ट होती है, तथा पौद्गलिक (भौतिक) सुखों की प्राप्ति की खोज में प्राणी रहता है, ऐसे परिणामों का नाम नील लेश्या है। ३. कापोत लेश्या - कबूतर के कण्ठ के समान रक्तमिश्रित कृष्णवर्ण के लेश्यावर्गीय पुद्गलों के सम्पर्क से आत्मा में ऐसे परिणाम उत्पन्न होते हैं, जिनसे सोचने-विचारने, बोलने और कार्य करने में सर्वत्र वक्रता (विपरीतता या कुटिलता ) ही वक्रता होती है, किसी विषय में सरलता, नम्रता या मृदुता नहीं होती, स्वभाव में नास्तिकता आ जाती है, और दूसरों के लिये कष्टदायक (कर्कश, कठोर, छेदन - भेदनकारी) भाषण- संभाषण करने की प्रवृत्ति होती है; ऐसे परिणाम, कापोतलेश्या के लक्षण हैं। ४. तेजोलेश्या (पीत लेश्या ) - तोते की चोंच के समान रक्तवर्ण के लेश्या - पुद्गलों के संसर्ग से आत्मा में एक ऐसा परिणाम होता है, जिससे स्वभाव में नम्रता, मृदुता, ऋजुता आ जाती है, शठता - कुटिलता - वक्रता दूर हो जाती है, चंचलता कम हो जाती है, धर्म तथा धर्मध्यान में रुचि एवं दृढ़ता होती है, और सब लोगों का हित करने की इच्छा होती है, ऐसे परिणाम तेजोलेश्या के लक्षण है। ५. पद्म लेश्या - हल्दी के समान रंग के लेश्यामय पुद्गलों से आत्मा में ऐसे परिणाम उत्पन्न होते हैं, जिनसे क्रोध, मान आदि चारों कषाय अधिक अंशों में मन्द हो जाते हैं, चित्त प्रशान्त एवं समभाव में स्थिर होने लगता है, आत्म संयम बढ़ जाता है, मितभाषिता और जितेन्द्रियता आ जाती है। ऐसे परिणाम हों, वहाँ पद्म लेश्या होती है। ६. शुक्ल लेश्या - आत्मा के उस परिणाम को समझना चाहिए, जिससे आर्तरौद्ररूप अशुभ ध्यान बंद होकर धर्म - शुक्लध्यान में आत्मा रमण करने लगता है, मन-वचन-काय को नियंत्रित एवं स्थिर ( एकाग्र) बनाने में रुकावट नहीं आती, १. कृष्णादि - द्रव्य - साचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्यैव तत्राऽयं, लेश्याशब्दः प्रवर्त्तते ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy