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________________ मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-१ २१७ का है। द्वितीय मतानुसार लेश्या द्रव्य, कर्म-निष्पंदरूप (कर्म-प्रवाहरूप) है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म के होने पर भी उसका निष्पन्दन होने से लेश्या के अभाव की उपपत्ति हो जाती है। उत्तराध्ययन पाई टीका में इस मत को व्यक्त किया है। तृतीय मतानुसार-लेश्या द्रव्य, योगवर्गणा के अन्तर्गत स्वतंत्र द्रव्य है। यह मत आचार्य हरिभद्रसूरि आदि का है। प्रज्ञापना पद १७ की टीका लोकप्रकाश में इसी मत का समर्थन है। भावलेश्या, आत्मा का परिणाम-विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है। संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि अनेक प्रकार होने से वस्तुतः भावलेश्या अनेक प्रकार की होती है, परन्तु शास्त्रकारों ने संक्षेप में ६ विभाग करके उसका स्वरूप बताया है। सर्वार्थसिद्धि और गोम्मटसार में कषायोदयअरंजित योग-प्रवृत्ति को लेश्या कहा गया है। यद्यपि इस लक्षणानुसार दसवें गुणस्थान तक ही लेश्या का होना पाया जाता है। एक अपेक्षा से यह कथन पूर्वमत से विरुद्ध नहीं है। पूर्वमत में केवल प्रकृति-प्रदेश बन्ध के निमित्तभूत परिणाम विवक्षित हैं, जबकि इस मत में स्थिति-अनुभाग आदि चारों बन्धों के निमित्तभूत परिणाम लेश्या शब्द से विवक्षित हैं। कर्मग्रन्थ में लेश्या के ६ भेदों का स्वरूप समझाने के लिए जामुन के वृक्ष का तथा छह लुटेरों का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। छह लेश्याओं का संक्षेप में स्वरूप इस प्रकार है १. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ 'क' परिशिष्ट, (पं. सुखलालजी), पृ. ३३ (ख) उत्तराध्ययन अ. ३४ टीका, पृ.६५०, (ग) उत्तरा. वादिवैताल शान्तिसूरि टीका में उद्धृत (घ) प्रज्ञापना १७वाँ लेश्यापद टीका पृ. ३३० (ङ) लोकप्रकाश सर्ग ३, श्लो. २८५ . . (च) भावलेश्या कषायोदयानुरंजिता योग-प्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकीत्युच्यते। . -सर्वार्थसिद्धि अ. २, सू६ . (छ) जोगपउत्ती लेस्सा, कसाय-उदयाणुरंजिया होइ। तत्तो दोण्णं कज्जे, बंधचउक्कं समुद्दिटुं॥४८९॥ अयदोत्ति छलेस्साओ, सुहतिय-लेस्सा दु देस विरदतिये। तत्तो सुक्का लेस्सा, अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥५३१॥ -गोम्मटसार जीवकाण्ड २. (क) किसी समय छह पुरुष जम्बूफल (जामुन) खाने की इच्छा करते हुए चले जा रहे थे। इतने में जामुन के पेड़ को देख, उनमें से एक पुरुष बोला-"लो जामुन ___. का पेड़ आ गया। अब फलों के लिये ऊपर चढ़ने की अपेक्षा अनेक फलों से (शेष पृष्ठ २१८ पर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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