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________________ सकाम और निष्काम कर्म : एक विश्लेषण ५५९ मात्र ही अधिकृत या अभीष्ट है। किन्तु सकाम कर्म की कामना वर्तमान की अपेक्षा सुदूर भविष्य के साथ अधिकाधिक सम्बद्ध होती है। स्काम कर्म से युक्त मानव की बुद्धि व्यवसायात्मिका (दृढ़ निश्चयकारिणी) नहीं होती । वह नाना विकल्पों और विषयों में दौड़ लगाती रहती है। इसलिए अव्यवसायात्मिका होती है । " किसी भी कार्य को करने से पहले उसकी बुद्धि स्वार्थ की ओर लगी रहती है। वह अपने तुच्छ स्वार्थ की, अपने फायदे की, अपनी स्वार्थसिद्धि की बात सोचता है, परहित उसके समक्ष गौण एवं उपेक्षित होता है। वह काम करने से पहले सोचता है कि जिस काम को करने का मैंने सोचा है, संकल्प किया है, उससे मुझे अर्थलाभ, प्रतिष्ठालाभ, स्वार्थसिद्धिलाभ, यशकीर्तिलाभ, सांसारिक सुखसामग्री का लाभ या मनचाहा यथेष्ट लाभ होगा या नहीं। उसका दृष्टिकोण लौकिक फायदावादी होता है। अगर उस काम से उसे यथेष्ट फल की प्राप्ति होती दिखाई देती है तो वह काम करता है, अन्यथा नहीं । इस प्रकार फल की आकांक्षा को हृदय में संजोकर काम करना ही सकाम कर्म का लक्षण है। सकामकर्मी की तीव्र कामना कार्य करने से पहले भविष्यत् की ओर दौड़ लगाती है। वह वहीं बैठकर पहले एक लम्बा चौड़ा प्लान बना लेता है, मन में फल प्राप्ति के विकल्पों का लम्बा खाका खींच लेता है। उदाहरणार्थ- मेरा यह काम सफल हो गया तो मेरे पास एक महल होगा, मोटर गाड़ियाँ होंगी, नौकर-चाकर होंगे, बाग-बगीचे होंगे, आमोद-प्रमोद के प्रचुर साधन हो जाएँगे, सारे समाज में मेरी प्रसिद्धि, प्रशंसा और प्रतिष्ठा होगी। तब मैं अपने स्वजनों और अभीष्ट जनों पर अनुग्रह करूँगा, और अपने द्वेषियों-विरोधियों को नीचा दिखाऊँगा, उनकी इज्जत धूल में मिला दूँगा । अगर यह कार्य सफल न हुआ तो इसमें लगाई गई सारी पूँजी बेकार हो जाएगी। मैं वर्तमान हालत से भी गई -बीती हालत में पहुँच जाऊँगा । फिर तो मैं किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहूँगा । सम्भव है, मैं दर-दर का मोहताज हो जाऊँ; इत्यादि नाना विकल्पों में उसका मन घूमता रहता है। कार्य प्रारम्भ करने से पहले भी उसके मन में तुच्छ स्वार्थकामनाओं के ये विकल्प रहते हैं, और कार्य पूरा हो जाने के बाद भी वे समाप्त नहीं होते। सफल होने पर हर्ष और असफल होने पर विषाद के विकल्पों की उधेड़-बुन में वह लगा रहता है। १. तुलना कीजिए व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ! बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ Jain Education International - भगवद्गीता अ. २ श्लो. ४१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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