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________________ ५५८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) निष्काम कर्म में भी फल प्राप्ति अपने अधीन नहीं इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- सकाम कर्म हो या निष्काम, प्रत्येक कर्म का फल अवश्य होता है। ऐसा कदापि सम्भव नहीं कि मनुष्य कर्म करता जाए और उसका फल न मिले। फल का यहाँ सीधा अर्थ हैसुख या दुःख की प्राप्ति ।' सुख - दुःख के हेतु से कर्म का परम्परागत फल विषयप्राप्ति भी हो सकता है। किन्तु फलप्राप्ति कर्तृत्व के अधीन न होकर भोक्तृत्व के अधीन होती है । किसान बीज बोने और उसे लगातार सींचने आदि का कार्य कर सकता है, फसल पैदा कर देना उसका काम नहीं। धान्य-प्राप्ति रूप फल उसे यथासमय स्वतः मिलता है, अथवा नहीं भी मिलता। एक विद्यार्थी अपने पाठ को पढ़ने, उच्चारण करने और रटने का काम तो स्वयं कर सकता है, लेकिन पाठ का याद हो जाना उसके वश की बात नहीं। पाठ याद तो उसके क्षयोपशम के अनुसार स्वतः हो जाता है। · जिसमें अधिक योग्यता है, उसे पाठ शीघ्र याद हो जाता है; कम योग्यता है, उसे पाठ देर से याद होता है। कर्म का फल यथेष्ट - मनचाहा मिले, यह भी कोई नियम नहीं है। मिल भी सकता है, नहीं भी। कभी-कभी मनुष्य सत्कार्य करता जाता है, परन्तु फल उसकी इच्छा के विपरीत होता है। रोग - शमन के लिये दी गई औषधि भी कभी - कभी रोगी को मृत्यु के मुख में पहुँचा देती है। कर्मफल त्याग के चार आधार इतने विश्लेषण पर से कर्मफल के विषय में चार तथ्य फलित होते हैं - (१) कर्म वर्तमान में होता है, फंल भविष्य में, कभी-कभी सुदूर भविष्य में, (२) कर्म करने की भांति फलप्राप्ति में मनुष्य का अधिकार नहीं, वह होता है, किया नहीं जाता, (३) कर्म का फल अवश्य होता है, (४) परन्तु कर्मफल सर्वथा मनचाहा हो, मनुष्य की इच्छानुसार ही हो, ऐसा नियम नहीं है; वह कभी कम, कभी अधिक और कभी विपरीत भी हो जाता है। निष्कामकर्मी सत्कर्तव्य, परार्थ कर्म आदि अनासक्तिपूर्वक करता है इस अपेक्षा से निष्काम कर्म करने वाला केवल सत्कर्म, सत्कर्तव्य, परार्थ कर्म, तदर्थ कर्म, यज्ञार्थ कर्म, अनासक्ति पूर्वक कर्म करता है। अतः निष्काम कर्म में इच्छा तो है, जानने और करने की, परन्तु उसकी इच्छा या कामना केवल वर्तमान के साथ सम्बद्ध है। किन्तु वहाँ कर्तव्यकर्म करना १. कर्मरहस्य पृ. १४८ से भावांश २. कर्मरहस्य से भावांश पृ. १३६ ३. वही, पृ. १३६ - १३७ से भावांश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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