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________________ ४६४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) ज्ञपरिज्ञा से कर्म को भलीभाति जानकर ही कर्म काटने का पुरुषार्थ करना हितावह आगमों में बताया गया है कि किसी भी हेय (त्याज्य) पदार्थ को पहले ज्ञ-परिज्ञा से पूरी तरह जानने पर ही प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उसका त्याग भलीभाँति द्रव्य और भाव से साधक कर सकता है। इसी प्रकार कर्म की सर्वांगीण प्रक्रिया को जाने बिना कर्मों से मुक्त होने का अर्थात्-पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करने एवं नवीन आते हुए कर्मों को रोकने का तथा समभाव में स्थित रहने का उपक्रम भलीभांति नहीं कर सकता। मशीन-मैन को मशीन की प्रक्रिया के ज्ञान की तरह साधक को कर्म-प्रक्रिया का ज्ञान आवश्यक एक बड़ी भारी मशीन है, उससे वस्त्र-उत्पादन होता है। उसमें अनेक छोटे-बड़े कल-पुर्जे लगे हुए होते हैं। यदि मशीन-मैन उस मशीन की पूरी प्रक्रिया और गतिविधि को तथा जिन कल-पुर्जी के सहारे से वह मशीन चलती है, उनकी कार्यप्रणाली और क्षमता को नहीं जानता-समझता तो वह मशीन जब चलती-चलती सहसा ठप्प हो जाएगी, या पुों में कहीं कोई बिगाड़ आ जाएगा, तब वह उस मशीन को ठीक नहीं कर सकेगा, न ही उसको संचालित कर सकेगा। इसी प्रकार कर्मरूपी यंत्र विविध इन्द्रिय, मन, वाणी, शरीर, बुद्धि आदि उपकरणों (कल-पुर्जी) से जीव को कैसे गतिमान करता है, उसकी प्रक्रिया (Process) क्या है ? इस समग्र प्रक्रिया और कार्यप्रणाली को जब तक जीव नहीं समझ लेगा, तब तक कर्म के शुभ, अशुभ एवं शुद्ध रूप का विवेक नहीं कर सकेगा, न ही वह आत्मा को अशुभ या पाप कर्मों से बचाकर शुद्ध रख सकेगा। भौतिक-रासायनिक प्रक्रिया की तरह जैविक-रासायनिक प्रक्रिया के प्रति जागरूक होना जरूरी जिस प्रकार गन्धक, शोरा, तेजाब आदि के मिलने पर भौतिक रासायनिक प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है और उससे भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थों की उपलब्धि होती है। इसी प्रकार कर्मों का जीव के साथ सम्मिलन होने पर भी जैविक-रासायनिक प्रक्रिया (Chemicalaction) प्रारम्भ हो जाती है। उस प्रक्रिया के फलस्वरूप जीव के भावों के अनुसार अनन्त प्रकार की विचित्रताएँ व्यक्त होती दिखाई देती हैं। जीव के रागादि परिणामों में वह बीज विद्यमान है कि वह प्रस्फुटित और विकसित होकर अनन्तविध विचित्रताओं को वट वृक्ष से समान दिखा देता है। अतः इस १. "ज्ञपरिज्ञया जानाति, प्रत्याख्यान-परिज्ञया प्रत्याचक्षते त्यजति।" -स्थानांग, स्थान २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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