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________________ कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप ४६३ कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप कर्म द्वारा आत्मा को मलिन करने की प्रक्रिया जानना आवश्यक अनन्त आकाश अपने आप में अत्यन्त स्वच्छ, निर्मल, निर्लेप है; परन्तु उस पर जब बादल छा जाते हैं, बिजली चमचमाने लगती है, आँधी और तूफान आने लगते हैं, वर्षा की झड़ी लग जाती है; तब वही आकाश स्वच्छता, निर्मलता, निर्लेपता और निरावरणता से रहित दिखाई देता है। आकाश की इस अस्वच्छ, समल, सावरण और लेपयुक्त होने की प्रक्रिया से प्रत्येक व्यक्ति जान लेता है कि इस समय आकाश स्वच्छ, निर्मल तथा आवरण और लेप से रहित नहीं है। इसी प्रकार आत्मा भी अपने-आप में निश्चयदृष्टि से शुद्ध, स्वच्छ, कर्ममल से रहित एवं कर्मों से निर्लेप है, परन्तु जब उस पर कर्मों के बादल छा जाते हैं, उसकी शक्ति, गति, मति को आवृत कर देते हैं, कषायों और विषयों के आंधी तूफान चलने लगते हैं, हिंसा आदि के क्रूरभावों की अथवा आर्त-रौद्र ध्यान की वर्षा होने लगती है, सांसारिक सुख-दुःखों तथा क्षणिक सम्पन्नता-विपन्नता की बिजली मानसिक गगन पर आँख-मिचौनी करने लगती है, तब स्पष्ट प्रतीत होने लगता है कि आत्मा कर्ममेघों से आच्छन्न है, वह कर्मों से ग्रस्त है। कर्मों ने अपना जाल स्वच्छ, शुद्ध, स्वतंत्र आत्मा पर फैला कर उसे जकड़ रखा है, उसकी शक्तियों को कुण्ठित कर रखा है। . परन्तु जैसे आकाश में प्रकृति के इस परिवर्तन की प्रक्रिया को अथवा उसकी प्रकृति और विकृति को नहीं जानने वाला उसके मूल स्वरूप और रहस्य को हृदयंगम नहीं कर पाता। इसी प्रकार आत्मा पर कर्मों की प्रक्रिया को तथा.आत्मा की प्रकृति और विकृति के रहस्य को व्यक्ति जब तक नहीं जान लेता; तब तक वह कर्मों से मुक्त, स्वच्छ, शुद्ध, निर्लेप एवं निर्मुक्त होने का उपक्रम एवं पुरुषार्थ नहीं कर सकता। इसलिए कर्म के प्रक्रियात्मक स्वरूप को जानना बहुत.ही आवश्यक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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