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________________ ४३४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . भी देता है। उसे प्रत्येक प्राणी के द्वारा किये जाने वाले क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध कर्मों का लेखा-जोखा रखने की जरूरत नहीं पड़ती। उसने प्रत्येक प्राणी के कृत, भुक्त और क्षीण कर्मों के संस्कारों का संचय करने के लिये प्रत्येक प्राणी को अपनी ओर से 'कार्मण शरीर' नामक ऐसा साधन प्रदान कर रखा है, जो उसके द्वारा किये गए, भोगे गए या क्षय किये गए समस्त अच्छे-बुरे कृतक कर्मों के संस्कारों को टेलीपैथी की तरह उस पर अनायास ही अंकित करता रहता है। वे ही कर्म-संस्कार यथासमय उदित होकर उसे दण्ड या पुरस्कार देते रहते हैं। बाहर का दिखाई देने वाला यह. स्थूल शरीर (औदारिक या वैक्रिय शरीर) रहे या न रहे परन्तु यह कार्मण शरीर (सूक्ष्मतम शरीर) मरते या जीते रहते हर समय प्रतिक्षण संसारी जीव के साथ रहता है और उसकी समस्त कार्यवाही का सूक्ष्म-निरीक्षण-परीक्षण करता रहता है। शास्ता और अनुशास्ता के रूप में समय-समय पर प्रत्येक प्राणी को उसके कर्म का फल देता रहता है। हिन्दू धर्म के पुरस्कर्ता गोस्वामी तुलसीदास जी भी कहते हैं "कर्म-प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करहि सो तस फल चाखा।"२ इसलिए किसी को उसके शुभाशुभ कर्मानुसार यथोचित दण्ड-पुरस्कार, या अपमान-सम्मान दिलाना, स्वर्ग-नरक में या मनुष्यतिर्यञ्च में भेजना, अल्पायु या दीर्घायु, सुखी-दुःखी, धनी-निर्धन, विपन्न-सम्पन्न अथवा स्वस्थ-अस्वस्थ बनाना उसके बांये हाथ का खेल है। कर्म का शासन कहें या अनुशासन विश्व में सर्वत्र सभी बद्ध जीवों पर चलता है। मुक्ति न होने तक कर्म छाया की तरह पिछलग्गू तथागत बुद्ध जैसे महान् व्यक्तियों को भी कर्म की महाशक्ति का लोहा मानकर कहना पड़ा-"भिक्षुओ। इस जन्म से इकानवे जन्म पूर्व मेरी शक्ति ('भाला' नामक शस्त्र विशेष) से एक पुरुष की हत्या हुई थी; उसी कर्म के फल (विपाक) स्वरूप मेरा पैर आज काटे से बिंध गया है। ___ कर्मों से जीव सर्वथा मुक्त नहीं हो जाता, तब तक वे छाया की तरह प्रतिपल पीछे लगे रहते हैं। वेदपंथी कवि सिहंलन मिश्र भी यही कहते १. कर्मरहस्य (जिनेन्द्र वर्णी) से सारांश २. रामचरितमानस (गोस्वामी तुलसीदास) ३. इत एकनवतितमे कल्पे, शक्तचा मे पुरुषो हतः। तेन कर्मविपाकेन, पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः।। -षड्दर्शन समुच्चय टीका में उद्धृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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