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________________ कर्म का परतत्रीकारक स्वरूप ४०७ काया से प्रवृत्त होने लगता है, तब वे पर-द्रव्य यानी पुद्गल विशेषतः कर्मपुद्गल उस पर हावी हो जाते हैं, उसे जकड़ लेते हैं, बांध लेते हैं, या उसके साथ चिपक जाते हैं, उसको (जीव को) परतंत्र और निजाधीन बना लेते हैं, उसे विकृत कर देते हैं। कर्म : जीव को परतंत्र बनाने वाला अहितकर शत्रु जो किसी को परतंत्र बनाता है, अपने शिकंजे में कसकर उसे मनचाहा नचाता है, परवश कर देता है, वह व्यावहारिक जगत् में एक प्रकार से शत्रु या विरोधी कहलाता है। विरोधी या शत्रु सदैव अपने प्रतिपक्षी का अहित करता है। यही कारण है कि 'पद्मनन्दि-पंचविंशतिका में कहा गया है-"धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये चार द्रव्य मेरा अहित नहीं करते। ये चारों गमनादि कार्यों में मेरी सहायता करते हैं। एक पुद्गलः । द्रव्य ही कर्म और नोकर्मरूप होकर मेरे समीप रहता है, यह बंधन (बन्ध) में जकड़ने और परतन्त्र बनाने वाला मेरा शत्रु है। अतः मैं अब उस कर्मरूपी शत्रु को भेदविज्ञानरूपी तलवार से विनष्ट करता हूँ। समयसार (आत्मख्याति) में कहा गया है-जीव के लिए कर्मसंयोग ऐसा ही है, जैसा. स्फटिक के लिए तमालपत्र। अरिहन्त तीर्थंकरः कर्मरूपी-शत्रुओं के हारक - अरिहन्तों-तीर्थकरों के लिए आगमों तथा उनकी व्याख्याओं एवं ग्रन्थों में यत्र-तत्र कर्मरूपी अरि-शत्रुओं को चूर-चूर करने वाले, कर्मशत्रु का ध्वंस करने वाले कहा गया है। वस्तुतः कर्मों को 'बंधविहाणे' (बंधविधान) में आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनन्द एवं शक्तिरूपी धन को लूटने वाले लुटेरे कहा गया है।' १. "धर्माधर्म-नभासि काल इति मे नैवाहितं कुर्वते, चत्वारोऽपि सहायतामुपगतास्तिष्ठन्ति गत्यादिषु। - एंकः पुद्गल एव सन्निधिगतो, नोकर्म-कर्माकृतिः, वैरी बन्धकृदेष सम्प्रति मया भेदासिना खण्डितः।" -पद्मनन्दि पंचविंशतिका २५ , आलोचनाधिकार २. समयसार (आत्मख्याति) ८९ ३. (क) कर्मारीन् रिपून हन्ति -नश्यतीति अरिहन्। ___ (ख) भेत्तारं कर्मभूभृताम् -सर्वार्थसिद्धि टीका ४. “इह कर्मलुण्टाकैर्लुण्टितज्ञानाद्यात्मधना..................कर्म प्रकृतीनां गति'मनवगाहमानाः............." -बंधविहाणे उत्तरपयडिबंधो (पूर्वांश) टीका पृ. ९ (संशोधक- श्री विजयप्रेमसूरिजी) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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