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________________ ४०६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . कर्म का परतंत्रीकारक स्वरूप कर्म-पुद्गल ही जीव को बन्धन में जकड़ कर परतंत्र बनाते हैं । जैनदर्शन में जीवन और जगत् के संचालन से सम्बद्ध छह द्रव्य माने जाते हैं। वे इस प्रकार हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय। इन सभी द्रव्यों का अपनाअपना पृथक्-पृथक् स्वभाव है। इनका अपना स्वभाव कभी निर्मूल नहीं होता। विभाव (स्व-भाव से विपरीत भाव) स्वभाव को विकृत कर सकता है, आवृत कर सकता है, उसके स्वभाव के प्रकटीकरण में बाधक बन सकता है तथा स्वभाव को दबा सकता है, किन्तु वह किसी द्रव्य के स्वभाव को निरस्त नहीं कर सकता, न ही सर्वथा लुप्त या विनष्ट (शून्य) कर सकता है। पूर्वोक्त छह द्रव्यों में से धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये चार द्रव्य तो आत्मा (जीव) से स्वभावतः अलिप्त और तटस्थ हैं। ये जीव की गति, स्थिति, अवकाश और समयादि व्यवहार में सहायक या तटस्थ निमित्त बन सकते हैं, किन्तु जीव (आत्मा) को अपनी गिरफ्त में लेने, जकड़ने, बांधने और परतंत्र बनाने का इनका स्वभाव या सामर्थ्य नहीं है। बंधते है तो दो ही द्रव्य, परस्पर श्लिष्ट होते हैं, दोनों अपने-अपने स्वभाव का प्रभाव एक दूसरे पर डालते हैं। दोनों द्रव्य (जीव और पुद्गल) एक दूसरे पर हावी होने का प्रयत्न करते हैं। इनमें से जो प्रबल होता है, वह अपने स्वभाव से दूसरे को विकृत कर देता है, अथवा दूसरे को दबा देता है, अधीन बना लेता है। __ इसके विपरीत यों भी कहा जा सकता है कि जीव और पुद्गल दोनों में चैतन्यशील-ज्ञानवान् तो जीव ही है, पुद्गल तो जड़ और ज्ञानशून्य है। इसलिए जीव (आत्मा) जब अपने स्वभाव को भूलकर पर-भाव या विभाव में रमण करने लग जाता है, पर-भाव तथा विभाव को ही अपना तथा अपना स्वभाव समझने लगता है; पर-भाव या विभाव में ही मन-वचन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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