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________________ २८८ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) जाता है। यद्यपि कर्मशास्त्र शरीरशास्त्र और मानसशास्त्र की दृष्टि से भी विचार करता है और उस-उस कर्म के उदय में अमुक-अमुक निमित्त एवं परिस्थिति को स्वीकार करता है। कर्मशास्त्र अध्यात्म शास्त्र से भिन्न नहीं ___कर्मशास्त्र का नाम सुनते ही कई स्थूलदृष्टि वाले लोग यह समझने लगते हैं कि इसमें खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना आदि शरीर से सम्बद्ध विविध कर्मों-कार्यों का वर्णन होगा अथवा केवल अच्छे-बुरे कर्मों का ही विवरण होगा। किन्तु यह महान् भ्रान्ति है। कर्मशास्त्र में कर्म का स्वरूप, प्रकार आदि का वर्णन करने के साथ-साथ आत्मा और कर्म का क्या . सम्बन्ध है ? कर्म आत्मा के साथ कब लगे, कैसे लगे, किन-किन कारणों से लगे ? कर्म पहले था या आत्मा ? आत्मा बलवान् है या कर्म ? कर्म आत्मा को सदा के लिए पराधीन कर देता है या आत्मा इससे सर्वथा मुक्त, स्वतंत्र भी हो सकता है ? कर्म आत्मा के साथ किस-किस रूप में बंधते हैं ? कर्म आत्मा के शुद्ध स्वरूप को कैसे आवृत-आच्छादित कर देते हैं ? ये और ऐसी आत्मा से सम्बन्धित विविध समस्याओं का समाधान जिस कर्मशास्त्र में हो, क्या उसे भौतिकशास्त्र या दैहिक कार्यशास्त्र कहा जाएगा, अथवा आध्यात्मिक शास्त्र ? नहीं, वह सर्वांग पूर्ण अध्यात्मशास्त्र ही कहलाएगा। ... आध्यात्मिक शास्त्र में भी आत्मा से सम्बन्धित प्रत्येक अतीत, अनागत और वर्तमान विषयों पर चर्चा-विचारणा की जाती है। वह आत्मा को निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से तौलता है। आत्मा की विविध शक्तियों का भी प्रतिपादन करता है, किन्तु वर्तमान में आत्मा की उन शक्तियों पर किसका काला पर्दा पड़ा हुआ है ? इसका भी सांगोपांग विश्लेषण करता है। आत्मा से सम्बन्धित प्रत्येक पहलू पर विचार-चिन्तन प्रस्तुत करना ही अध्यात्मशास्त्र का उद्देश्य है। अतएव अध्यात्म-शास्त्र आत्मा के पारमार्थिक स्वरूप का निरूपण करने के साथ-साथ उसके व्यावहारिक स्वरूप का भी निरूपण करता है। अर्थात्-आत्मा का वास्तविक स्वरूप क्या है और वर्तमान में उसकी चेतना कुण्ठित, आवृत, एवं बुझी हुई क्यों और किस कारण से है ? इस प्रकार आत्मा के आदर्श और व्यवहार, प्रकृति और विकृति दोनों का यथार्थ प्रतिपादन करना ही अध्यात्मशास्त्र का प्रयोजन है। यदि अध्यात्मशास्त्र केवल निश्चय का एकांगी प्रतिपादन करता है तो उसके समक्ष गतियों, योनियों एवं शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण, योग, उपयोग, वेद (काय), कषाय, ज्ञान, आहार आदि को लेकर प्राणी के रूपों की विविधता, सुखी-दुःखी, धनी-निर्धन, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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