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________________ कर्मवाद का तिरोभाव-आविर्भाव : क्यों और कब २५५ पड़ती है। वे जान गये कि ये पशु यहाँ क्यों बंद किये गये हैं ? उनके मन में मन्थन जागा कि "ये बेचारे मूक और निर्दोष पशु, अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण तिर्यञ्चयोनि पाये हैं। ये अपनी वेदना, व्यथा, मानवभाषा में किसी से कहकर प्रगट नहीं कर सकते। फिर भी इनका करुण चीत्कार प्रगट कर रहा है, इन्हें अपनी करुण मृत्यु का आभास अत्यन्त पीडाजनक एवं दुःखद लग रहा है। मनुष्यों को क्या अधिकार है-इन निर्दोष, निरपराध पशुओं को मारकर इनका मांस खाने का ? क्या इस प्रकार के क्रूर एवं पशुघातक मानव को अपने इस दुष्कर्म का फल भविष्य में दारुणफल के रूप में नहीं भोगना पड़ेगा ? पशुओं के साथ बाँधी हुई इस वैर-परम्परा का अन्त भी तो अनेक जन्मों तक नहीं आ पाएगा, और उन-उन जन्मों में कुगतियाँ और कुयोनियाँ और दुष्परिस्थितियाँ पाकर इस मानव नामक प्राणी को हिंसाकृत्य के दुष्कर्मों को काटने या नष्ट करने का सुबोध कहाँ मिलेगा? फलतः जन्म-जन्मान्तर तक दुष्कर्मों का यह कुचक्र चलता रहेगा। वर्तमान में अबोध हिंसाकृत्य पर उतारू इन मानवों की कर्मों से मुक्ति बहुत ही दुष्कर हो जाएगी। अतः इस प्रसंग पर मुझे इन अंबोध मानवों को समझाना चाहिए और मुझे भी-मेरे निमित्त से होने वाले इस पशुहिंसा के कुकृत्य से बचना चाहिए।" इस प्रकार के मनोमंथन' के फलस्वरूप उन्होंने जनता को कर्मवाद का बोध देने की दृष्टि से अपने सारथी से पूछा-'ये सब सुखार्थी प्राणी किस लिए इन बाड़ों और पिंजरों में रोके हुए हैं ?' उसने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया-'स्वामिन्। आप के विवाह-कार्य में उपस्थित होने वाले बहुत से लोगों को मांस-भोज देने के लिए इन प्राणियों को इस विशाल बाड़े में एकत्रित किया गया है।' इस पर नेमिनाथ ने उक्त रथ को वहीं रुकवा दिया। बारात आगे नहीं बढ़ सकी। करुणाशील महाप्राज्ञ अरिष्टनेमि ने कर्मवाद के रहस्य को अप्रत्यक्ष रूप से जनता के समक्ष आविष्कृत करने तथा उपदेश देने हेतु कहा-"यदि मेरे निमित्त से इन बहुत से प्राणियों का वध होता है, तो उससे होने वाला यह कर्मबन्ध परलोक में मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं होगा।" २ १... "चितेइ से महापन्ने, साणुक्कोसे जिएहिउ।" -उत्तराध्ययनसूत्र अ. २२, गा. १८ १. कस्स अट्ठा इमे पाणा, एए सव्वे सुहेसिणो बाडेहि पंजरेहिं च सनिरुद्धा य अच्छाहि ? ॥१६॥ अह सारही तओ भणह एए भद्दा उ पाणिणो। तुज्झ विवाह कज्जमि भोयावेउ बहु जणं ।।१७।। जइ मज्झकारणा एए हम्महिंति बहू जिया। न मे एयं तु निस्सेसं परलोगे भविस्सइ।।१९।। -उत्तराध्ययन अ. २२ गा. १५ से १९ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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