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________________ २५४ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) . ऋषभदेव के सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाने के बाद आगे के द्वितीय तीर्थकर के आने तक में लाखों वर्षों का समय हो गया। इतना लम्बा व्यवधान जनता की तत्त्वज्ञान की स्मृति, धारणा या परम्परा को धूमिल कर देता है। जनता अपने समय के तीर्थंकर के द्वारा आविर्भूत कर्मवाद के सैद्धान्तिक तत्त्वों एवं तथ्यों को धीरे-धीरे विस्मृत हो जाती है। यही कारण है कि एक तीर्थकर के मोक्ष पधारने के पश्चात् जनता सैकड़ों-हजारों वर्षों तक उस आविष्कृत कर्मवादीय सिद्धान्त को अविकल रूप से स्मरण नहीं रख पाती। उसमें मिश्रण हो जाता है। इसलिए युग-युग में एक तीर्थंकर के मुक्त हो जाने के बाद दूसरा तीर्थकर आता है, और जनता में सुषुप्त, विस्मृत एवं धूमिल पड़े हुए एवं तिरोहित हुए कर्मवाद के संस्कारों को पुनः जागृत एवं आविष्कृत करता है, स्मरण कराता है और उस पर पड़ी हुई विस्मृति की धूल की परत को हटाता है। इस प्रकार हर महायुग में नया आने वाला तीर्थकर अपने-अपने युग की परिस्थितियों और आवश्यकताओं को देखकर कर्मवाद का आविर्भावआविष्कार करता है। इतिहास इस विषय में मौन है कि भगवान् ऋषभदेव के पश्चात् बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि तक होने वाले बीस तीर्थकरों ने अपने-अपने महायुग में किन-किन आवश्यकताओं, परिस्थितियों एवं अपेक्षाओं को लक्ष्य में रखकर कर्मवाद का आविर्भाव-आविष्कार किया था ? बाईसवें तीर्थकर (अरिष्टनेमि) से लेकर इस महायुग के अन्तिम तीर्थकर ज्ञातपुत्र निर्ग्रन्थ श्रमण भगवान् महावीर तक को ऐतिहासिक महापुरुष माना जाता है। उन्होंने अपने-अपने जीवनकाल में किनकिन आवश्यकताओं, परिस्थितियों एवं अपेक्षाओं को लेकर कर्मवाद का आविष्करण-आविर्भाव किया, इसकी कुछ-कुछ झांकी जैनागमें में तथा जैनाचार्यों एवं मनीषी मुनियों द्वारा लिखित ग्रन्थों में मिलती है। भगवान् अरिष्टनेमि द्वारा तिरोभावापन्न कर्मवाद का आविर्भाव बाईसवें तीर्थकर भगवान् अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) के द्वारा कर्मवाद के आविष्करण-अभिव्यक्तीकरण की एक झांकी उत्तराध्ययन सूत्र में मिलती है। संक्षेप में वह इस प्रकार है-जब अरिष्टनेमि श्रीकृष्णजी आदि यादवपुंगवों के अनुरोध पर राजीमती (राजुल) से विवाह करने के लिए बारात लेकर प्रस्थान करते हैं और ज्योंही उग्रसेन राजा के महलों के निकट पहुँचते हैं, त्यों ही उनकी दृष्टि वहाँ एक विशाल बाड़े में पिंजरों में बंद पशुओं पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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