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________________ ५९१ -६. २७] मोक्षप्राभृतम् श्वरपंक्तिपल्यविधानादिमहातपोविधिविधाता मम जन्मैवं तपः कुर्वतो गतं, एते तु यतयो नित्यभोजनरताः । वपुः-ममरूपाने कामदेवोऽपि दासत्वं करोतीत्यष्टमदाः । रागश्च प्रोतिलक्षणः । द्वेषश्चाप्रीतिलक्षणः। व्यामोह पुत्रकलत्रमित्रादिस्नेहः । वामानां स्त्रीणां वा ओहो वामौहः तत्तथोक्तं समाहारो द्वन्द्वः । ( लोयववहारविरदो ) धर्मोपदेशादिकमपि न करोति लोकव्यवहारविरतः । ( अप्पा झाएइ झाणत्थो ) आत्मानं, ध्यायति चिन्तयति, झाणत्थो-"उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहर्तात्" इत्युक्तलक्षणो ध्याने तिष्ठतीति ध्यानस्थः। “स्थश्च" इति कप्रत्ययप्रयोगत्वात् ध्यानस्थ उच्यते । अहंकार को बलमद कहते हैं। मेरे . पास अनेक लाख अथवा अनेक करोड़ का धन था फिर भी मैंने छोड़ दिया। इन अन्य मुनियों ने तो कर्जदार होकर दीक्षा ली है. इस प्रकार के अहंकार को ऋद्धिमद कहते हैं। मैं सिंहनिष्क्रीडित, विमान-पंक्ति, सर्वतोभद्र, शातकुम्भ, सिंहविक्रम, त्रिलोकसार, वज्रमध्य, उल्लीणोल्लीण, मृदङ्गमध्य, धर्मचक्रवाल, रुद्रोत्तर, वसन्त, मेरु, नन्दीश्वर पंक्ति तथा पल्यविधान आदि महातपोंका करने वाला हूँ, मेरा जन्म इस तरहके तप करते हुए व्यतीत हुआ है। परन्तु ये मनि नित्य भोजन में लीन हैं अर्थात् एक भी उपवास नहीं करते हैं, इस प्रकारके अहंकारको तपमद कहते हैं। और मेरे रूपके आगे कामदेव भी दासता करता है, इस प्रकार के मदको शरीरमद कहते हैं। रागका अर्थ प्रीति है, द्वेषका अर्थ अप्रीति है, व्यामोह का अर्थ पुत्र स्त्री तथा मित्र आदि का स्नेह है। लोकव्यवहार का अर्थ धर्मोपदेश आदि है तथा ध्यान का अर्थ उत्तम संहनन वाले जोवका अन्तमुहूर्त तक किसी पदार्थ में चित्तको गतिका स्थिर हो जाना है । __इस तरह समस्त पदोंका अर्थ-विवेचना के बाद गाथा का अर्थ यह है कि ध्यान में बैठा मुनि समस्त कषायों को तथा गारव, मद, राग, द्वेष और व्यामोहको छोड़कर लोक-व्यवहार से विरत होता हुआ आत्मा का ध्यान करता है । पूर्व गाथा में यह कहा था कि जो संसार सागर से पार होना चाहता है वह शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है और इस गाथा में शुद्ध आत्मा का ध्यान किस प्रकार किया जाता है यह बताया है । - गाथामें आये हुए ध्यानस्थ शब्द की सिद्धि 'स्थश्च' इस सूत्रसे क १. जैनेन्द्रस्येदं सूत्रं परिज्ञायते । अस्य स्थाने स्थः कः इति शाकटानीय सूत्रं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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