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________________ ५४५ -५. १५०] भावप्राभृतम् मुखः भूतपूर्वनयापेक्षया चतुर्मुखः चतुर्विक्षुसर्वसम्यानां सन्मुखस्य दृश्यमानत्वात् सिद्धावस्थायां तु सर्वत्रावलोकनशीलत्वात् चतुर्मुखः । बुदधते सर्व जानातीति बुद्धः । "ञ्यनुबन्धमतिबुद्धिपूजार्थेभ्यः क्तः" इत्यनेन सूत्रेण वर्तमानकाले क्तप्रत्ययः । ( अप्पो वि य परमप्पो ) आत्मापि च संसारी जीवोऽपि च परमात्मा अहंन सिद्धश्च भवति । कथंभूतः सिद्धः, ( कम्मविमुक्को य होइ फुडं ) कर्मभ्यो विमुक्तो रहितो भवति संजायते स्फुटं निश्चयेनेति शेषः। एतत् सम्यग्दर्शनस्य महान् महिमा ज्ञातव्य इति भावार्थः । इय घाइकम्ममुक्को अट्ठारहदोसवजिओ सयलो। तिहुवणभवणपदीवो देउ सम उत्तमं बोहि ॥१५॥ इति घातिकर्यमुक्तः अष्टादशदोषवज्जितः सकलः । त्रिभुवनभवनप्रदीपः ददातु मह्यमुत्तमं बोधम् ॥१५०॥ ( इय घाइकम्ममुक्को ) इति पूर्वोक्तलक्षणघातिकर्मभ्यो मुक्तः । ( अट्ठारहदोसवज्जिो सयलो ) अष्टारशदोषवजितो रहितः, सकलः सह कलया शरीरेण वर्तते इति सकलः तेन तस्य धर्मोपदेशोऽपि घटते शरीरसंयुक्तपरमाप्तत्वात् । एते. नेदं वचनं प्रत्युक्तं भवतिजानता है इसलिये सर्वज्ञ है। केवलज्ञानके द्वारा लोकालोक को व्याप्त करता है इसलिये विष्णु है। विष्णु शब्द में 'विषेः किच्च' इस सूत्र से नु प्रत्यय हुआ है तथा कित् होनेके कारण गुण नहीं हुआ है। भूतपूर्व नयकी अपेक्षा अर्थात् समवशरण में चारों दिशाओं में बैठे हुए सभ्यों को सन्मुख दर्शन होते थे इस विवक्षासे चतुर्मुख कहलाता है और सिद्धावस्था में सब ओर के पदार्थों को जानता देखता है इसलिये चतुर्मुख कहलाता है । समस्त पदार्थों को जानता है इसलिये बुद्ध है। बुद्ध शब्द में 'ज्यनुबन्ध-मति-बुद्धि-पूजार्थेभ्यः क्तः' इस सूत्र से वर्तमान काल में क्त प्रत्यय हुआ है। अर्हन्त और सिद्ध होनेसे परमात्मा कहलाता है तथा निश्चय से ज्ञानावरणादि कर्मोसे विमुक्त होता है। यह सब सम्यग्दर्शन की महान् महिमा जानना चाहिये ॥१४९॥ ___ गावा-इस प्रकार जो घातिया कर्मोंसे मुक्त हो चुके हैं, अठारह दोषों से रहित हैं तथा तीन लोक रूपी भवन को प्रकाशित करने के लिये श्रेष्ठ दीपक के समान हैं वे सकल अर्थात् परमौदारिक शरीरके धारक अर्हन्त भगवान् मुझे उत्तम ज्ञान-केवलज्ञान देवें ॥१५०॥ - विशेषार्थ-अर्हन्त भगवान् पूर्वोक्त चार घातिया कोसे रहित हैं। अठारह दोषों से रहित हैं और सकल अर्थात् कला-परमौदारित शरीर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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