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________________ अणुप्पेहाए (अनुप्रेक्षा) अर्थात् तत्त्वभूत पदार्थ का चिंतन पूर्वक कायोत्सर्ग करना, न कि प्रवृत्ति रुप कायोत्सर्ग करना । परमात्मा के गुणों का चिंतन करते हुए कायोत्सर्ग करना, अनुप्रेक्षा है । प्र. 1139 अनुप्रेक्षा को रत्न शोधक अग्नि के समान क्यों कहा ? उ. जैसे रत्नशोधक अग्नि रत्न के मैल को जला कर उसे शुद्ध बनाता है, उ. वैसे ही परम संवेग की दृढता आदि के द्वारा तत्त्वार्थ चिंतन रुप अनुप्रेक्षा I सर्व कर्म रुपी मैल को जलाकर आत्मा को शुद्ध- बुद्ध बनाती है प्र.1140 पृथक-पृथक विषयों में भ्रमण करने वाला मन कैसे एकाग्रता को प्राप्त हो सकता है ? श्रद्धा को धारण कर, मेधा को विकसित करके, चित्त को स्वस्थ बनाकर (धृति), धारणा से पदार्थ का अभ्यास करके, अनुप्रेक्षा द्वारा बारम्बार उस पदार्थ का चिंतन करने से चित्त निश्चित्त रुप से एक विषय में एकाग्र हो सकता है । प्र.1141 अपूर्वकरण महासमाधि ( 8वाँ गुणस्थान) के बीज (कारण) कौन है ? उ. उ. अपूर्वकरण महासमाधि के बीज - श्रद्धा, मेधा, धृति और अनुप्रेक्षा है । प्र. 1142 सद्धाए, मेहाए.... अणुप्पेहाए इन पाँचों को अपूर्वकरण सिद्धि का . बीज क्या कहा गया है ? शोधक रत्न के समान चित्तशोधक बलिष्ठ श्रद्धा, रोगी की औषध ग्रहणादार के समान शास्त्रग्रहण की मेधा, चिन्तामणि की प्राप्ति के समान जिन धर्म प्राप्ति में धृति, माला पिरोने वाले की तरह स्थानादि योगग धारणा; इन श्रद्धादि चारों के बढ़ने से फलतः रत्नशोधक अग्नि के समान उ. चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी Jain Education International For Personal & Private Use Only 299 www.jainelibrary.org
SR No.004240
Book TitleChaityavandan Bhashya Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVignanjanashreeji
PublisherJinkantisagarsuri Smarak Trust
Publication Year2013
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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