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________________ योग-शास्त्र ... महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक मौन रहकर घोर तप, ध्यान एवं प्रात्मचिन्तन के द्वारा योग-साधना का ही जीवन बिताया था। उनके शिष्यशिष्या परिवार में पचास हजार व्यक्ति-चवदह हजार साधु और छत्तीस हजार साध्वियें, ऐसे थे, जिन्होंने योग-साधना में प्रवृत्त होकर साधुत्व को स्वीकार किया था।' - जैन परम्परा के मूल ग्रन्थ पागम हैं। उनमें वर्णित साध्वाचार का अध्ययन करने से यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि पांच महाव्रत, समति-गुप्ति, तप, ध्यान, स्वाध्याय आदि-जो योग के मुख्य अंग हैं, उनकी साधु जीवन का, श्रमण-साधना का प्राण माना है ।२ वस्तुतः प्राचारसाधना श्रमण-साधना का मूल है, प्राण है, जीवन है। प्राचार के प्रभाव में श्रमणत्व की साधना केवल निष्प्राण कंकाल एवं शव रह जाएगी। जैनागमों में 'योग' शब्द समाधि या साधना के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। वहाँ योग का अर्थ है-मन, वचन और काय-शरीर की प्रवृत्ति । योग शुभ और अशुभ-दो तरह का होता है। इसका निरोष करना ही श्रमण-साधना का मूल उद्देश्य है, मुख्य ध्येय है। अत: जैनागमों में साधु को प्रात्म-चिन्तन के अतिरिक्त अन्य कार्य में प्रवृत्ति करने की ध्रुव प्राज्ञा नहीं दी है । यदि साधु के लिए अनिवार्य रूप से प्रवृत्ति करना आवश्यक है, तो आगम निवृत्तिपरक प्रवृत्ति करने की अनुमति देता है । इस प्रवृत्ति को प्रागमिक भाषा में समिति-गुप्ति' कहा है, इसे प्रष्ट प्रवचन माता भी कहते हैं । 3 पांच समिति-१. इर्या १. चउद्दसहि समणसाहस्सीहिं छत्तीसहि अज्जिनासाहस्सोहि ।। —उववाई सूत्र. २. प्राचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, वशवकालिक मादि। ३. अट्ट पवयणमायामो, समिए गुत्ती तहेव य । पंचेव य समिईयो, तमो गुत्ती उ अहिया ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र, २४, १. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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