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________________ चतुर्थ प्रकाश १३१ जीव अकेला ही उत्पन्न होता और अकेला ही मरता है । भव-भवान्तर में संचित कर्मों को अकेला ही भोगता है । ___एक जीव के द्वारा पापाचरण करके जो धन-उपार्जन किया जाता है, उसे सब कुटुम्बी मिलकर भोगते हैं। परन्तु, वह पापाचारी अपने पाप-कर्मों के फल-स्वरूप नरक में जाकर अकेला ही क्लेश का संवेदन करता है। ५. अन्यत्व-भावना यत्रान्यत्वं शरीरस्य वैसादृश्याच्छरीरिणः । धन-बन्धु-सहायानां तत्रान्यत्वं न दुर्वचम् ॥ ७० ॥ यो देह-धन-बन्धुभ्यो भिन्नमात्मानमीक्षते । क्व शोकशकुना तस्य हन्तातङ्कः प्रतन्यते ॥ ७१ ॥ शरीर रूपी है और प्रात्मां अरूपी। शरीर जड़ है और आत्मा चेतन । शरीर अनित्य है और प्रात्मा नित्य । शरीर भवान्तर में साथ नहीं जाता है और आत्मा भवान्तर में भी रहता है। इस प्रकार जहाँ शरीर और शरीरवान्-प्रात्मा में विसदृशता होने से भिन्नता स्पष्ट प्रतीत होती है, वहाँ धन और बन्धु-बान्धवों की भिन्नता कहने या समझने में क्या कठिनाई हो सकती है ? . जो साधक अपनी आत्मा को देह से, धन से और परिवार से भिन्न अनुभव करता है, उसे वियोग-जन्य शोक का शल्य कैसे पीड़ित कर सकता है ? कहने का अभिप्राय यह है कि वह कैसी भी परिस्थिति में शोक-ग्रस्त नहीं होता। ६.. . अशुचित्व-भावना रसासृग्मांसमेदोस्थिमज्जा शुक्रान्त्रवर्चसाम्। प्रशुचीनां पदं कायः शुचित्वं तस्य तत्कुतः ।। ७२ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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