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________________ १३० . योग-शास्त्र ३. संसार-भावना श्रोत्रियः श्वपचः स्वामी पत्तिब्रह्मा कृमिश्च सः।। संसार-नाट्ये नटवत् संसारी हन्त चेष्टते ॥ ६५ ।। संसारी जीव संसार रूपी नाटक में नट की तरह विभिन्न चेष्टाएँ कर रहा है। वेद का पारगामी ब्राह्मण भी मरकर कर्मानुसार चाण्डाल बन जाता है, स्वामी मर कर सेवक के रूप में उत्पन्न हो जाता है और प्रजापति भी कीट के रूप में जन्म ले लेता है। न याति कतमां योनि कतमां वा न मुञ्चति । - संसारी कर्म - सम्बन्धादवक्रय - कुटीमिव ।। ६६ । भव-भवान्तर में भ्रमण करने वाला यह जीव कर्म के सम्बन्ध से किराये की कुटिया के समान किस योनि में प्रवेश नहीं करता है ? और किस योनि का परित्याग नहीं करता है ? वह संसार की समस्त योनियों में जन्म लेता है और मरता है। समस्त लोकाकाशेऽपि नानारूपैः स्वकर्मभिः। बालाग्रमपि तन्नास्ति यन्न स्पृष्टं शरीरिभिः ॥ ६७ ॥ सम्पूर्ण लोकाकाश में एक बाल की नौंक के बराबर भी ऐसा कोई स्थान नहीं है, जिसे जीवों ने अपने नाना प्रकार के कर्मों के उदय से स्पर्श न किया हो । अनादि काल से भव-भ्रमण करते हुए जीव ने लोक के प्रत्येक प्रदेश पर जन्म-मरण किया है और वह भी एक बार नहीं, अनन्त-अनन्त बार। ४. एकत्व-भावना एक उत्पद्यते जन्तुरेक एव विपद्यते । कर्माण्यनुभवत्येकः प्रचितानि भवान्तरे ॥ ६८ ॥ अन्यैस्तेनाजितं वित्तं भूयः सम्भूय भुज्यते । । स त्वेको नरकक्रोडे क्लिश्यते निजकर्मभिः ।। ६६ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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