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________________ द्वितीय प्रकाश मित्रपुत्रकलत्राणि, भ्रातरः पितरोंऽपि हि । संसजन्ति क्षणमपि, न म्लेच्छैरिव तस्करैः ॥७१।। चोरी करने वाले के मित्र, पुत्र, पत्नी, भाई-बंधु और पिता आदि स्वजन भी उससे मिलना पसंद नहीं करते । जैसे अनार्य से कोई नहीं मिलता, उसी प्रकार चोर से भी कोई नहीं मिलना चाहता। टिप्पण-चोरी करने वाला दूसरों की दृष्टि में तो गिर ही जाता है, परन्तु अपने प्रात्मीय जनों की निगाह में भी गिर जाता है। चोर का संसर्ग करना भी पाप है, ऐसा समझ कर उसके कुटुम्बी भी उससे दूर रहने में ही अपना कल्याण समझते हैं। वे उसे म्लेच्छ के समान समझते हैं। - नीति में चोर का संग करना भी महापाप माना है । ब्रह्महत्या सुरापांनं, स्तेयं गूर्वङ्गनागमः । महान्ति पातकान्याहुस्तत्संसर्गञ्च पञ्चमम् ॥ ब्रह्म-हत्या, मदिरा-पान, चोरी और गुरु की पत्नी के साथ गमन करना, यह महापातक हैं और इन पातकों को करने वालों से संसर्ग रखना पाँचवाँ महापाप है। संबन्ध्यपि निगृह्यत चौर्यान्मण्डूकवन्नृपैः । .. चौरोऽपित्यक्त चौर्यःस्यात्र वर्गभानौहिणेयवत् ॥७२॥ - राजा चोरी करनेवाले अपने सम्बन्धी को भी दंडित करते हैं और चोर भी चोरी का त्याग करके, रोहिणेय की तरह स्वर्ग को प्राप्त कर सकता है। - दूरे परस्य सर्वस्वमपहर्तुमुपक्रमः । ..उपाददीत नादत्त तृणमात्रमपि क्वचित् ॥७३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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