SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ चौर्य-कर्म महापाप है योग - शास्त्र एकस्यैकं क्षणं दुःखं, मार्यमाणस्य जायते । सपुत्र-पौत्रस्य पुनर्यावज्जीवं हृते धने ॥६८॥ मारे जाने वाले जीव को अकेले को और एक क्षण के लिए दुःख होता है । किन्तु जिसका धन हरण कर लिया जाता है, उसे और उसके पुत्र एवं पौत्र को जीवन भर के लिए दुःख होता है । टिप्पण - प्राण हरण करने पर जिसके प्राण हरण किए जाते हैं, उसी को कष्ट होता है, दूसरों को नहीं । पर, धन हरण करने पर धन के स्वामी को भी कष्ट होता है और उसके पुत्रों एवं पौत्रों को भी कष्ट होता है । और मृत्यु के समय क्षण भर ही दुःख का संवेदन होता है, परन्तु धन का अपहरण करने पर धनवान् को जिन्दगी भर दुःख बना रहता है । इन दो कारणों से अदत्तादान, हिंसा से भी बड़ा पाप है । चोरी का फल चौर्य्यपाप-द्रुमस्येह, वध - बन्धादिकं फलम् । जायते परलोके तु, फलं नरक - वेदना || ६६॥ चोरी के पाप रूप पादप के फल सकते हैं - १. इहलोक सम्बन्धी, २. से इस लोक में वध, बन्धन आदि नरक की भीषण वेदना का संवेदन Jain Education International 1 दो भागों में विभक्त किये जा और परलोक सम्बन्धी । चोरी फल प्राप्त होते हैं और परलोक में करना पड़ता है । दिवसे वा रजन्यां वा, स्वप्ने वा जागरेऽपि वा । सशल्य इव चौर्येण, नैति स्वास्थ्यं नरः क्वचित् ॥७०॥ चौर्य कर्म करने के कारण मनुष्य कहीं भी स्वस्थ - निश्चिन्त नहीं रह पाता । दिन में और रात में, सोते समय और जागते समय, सदा-सर्वदा वह सशल्य - चौर्य-कर्म की चुभन से बेचैन ही बना रहता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy