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________________ द्वितीय उद्देशक शय्या संस्तारक यथाविधि प्रत्यर्पित न करने का प्रायश्चित्त ५१ - शय्या-संस्तारक यथाविधि प्रत्यर्पित न करने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू पाडिहारियं सेज्जासंथारयं आयाए अप्पडिहट्ट संपव्वयइ संपव्वयंत वा साइज्जई॥५६॥ जे भिक्खू सागारियसंतियं सेजासंथारयं आयाए अविगरणं कट्ट अणप्पिणेत्ता संपव्वयइ संपव्वयंतं वा साइज्जइ।। ५७॥ कठिन शब्दार्थ - आयाए - लाकर. गृहीत कर, अप्पडिहट्ट - अप्रतिहत कर - न लौटा कर, संपव्वयइ - संप्रव्रजन - विहार, अविगरणं कट्ट - अविकृत रूप में - पूर्ववत् स्थिति में, अणप्पिणेत्ता - प्रत्यर्पित किए बिना - लौटाए बिना। भावार्थ - ५६. जो भिक्षु प्रातिहारिक रूप में याचित कर लिए हुए शय्या-संस्तारक को न लौटाकर - लौटाए बिना ही विहार कर देता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। . ..:५७. जो भिक्षु शय्यातर से याचित कर लिए हुए शय्या-संस्तारक को अविकृतरूप में - . पूर्ववत् स्थिति में लौटाए बिना ही विहार कर देता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - साधु का यह दायित्व है कि वह शय्यातर से या अन्य गृहस्थ से याचित. गृहीत शय्या, पीठ, फलक आदि उपकरणों को उन्हें वापस अविकृत रूप में - पूर्ववत् स्थिति में देने वालों को लौटाए। अपने प्रवास काल में अपने द्वारा प्रयुक्त उपकरणों में कोई विकरण, परिवर्तन आदि किया गया हो। प्रयोजनवश बांस की पट्टियाँ, पर्दे आदि हटाए गए हों। आवश्यकता की दृष्टि से पीठ, फलक आदि में भी यत्किंचित् परिवर्तन किया गया हो तो वहाँ से विहार करने से पूर्व उन सबको पूर्ववत् व्यवस्थित कर, उनके स्वामी को सम्हलाकर ही विहार करना चाहिए। ऐसा न करने से साधु के अव्यवस्थित जीवन क्रम एवं दायित्व बोध का अभाव सूचित होता है। अपनी वस्तु अयथावत् रूप में प्राप्त होने से दाता के मन में असंतोष भी आशंकित है, साधुओं को उपकरण प्रदान करने में उत्साह कम होता है। अत एव साधु अपने उत्तरदायित्व का पूर्णरूप से वहन करता हुआ गृहस्थों से ली हुई वस्तुओं को ज्यों का त्यों सौंप कर ही विहार करे। यह साधुओं की सात्त्विक, विशुद्ध आचार-संहिता के अनुरूप है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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