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________________ ५० निशीथ सूत्र भावार्थ - ५३. जो भिक्षु प्रातिहारिक - दूसरी जगह याचित कर लाए हुए (प्रत्यर्पणीय) शय्या-संस्तारक को पुनः उसके स्वामी की आज्ञा लिए बिना उपाश्रय से बाहर, अन्यत्र ले जाता है या अन्यत्र ले जाते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ५४. जो भिक्षु शय्यातर से याचित (प्रत्यर्पणीय) शय्या-संस्तारक को उससे पुनः आज्ञा लिए बिना उपाश्रय से बाहर, अन्यत्र ले जाता है या अन्यत्र ले जाते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ५५. जो भिक्षु प्रातिहारिक या शय्यातर से याचित (प्रत्यर्पणीय) शय्या-संस्तारक को उनसे पुनः आज्ञा लिए बिना उपाश्रय से बाहर, अन्यत्र ले जाता है अथवा अन्यत्र ले जाते हुए का अनुमोदन कस्ता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। . __ विवेचन - गृहस्थ से प्रवास हेतु याचित भवन, घर में पहले से रखे हुए शय्यासंस्तारक, पाट, बाजोट आदि साधु शय्यातर से याचित करके ही उपयोग में लेता है। यद्यपि वे उसी मकान में विद्यमान रहते हैं, किन्तु उपयोग में लेने के अनन्तर उन्हें वापस सम्हलाता है। इसलिए वे प्रत्यर्पणीय कहे जाते हैं। यहाँ उनके लिए 'सागारियर्सतियं (सागारिकसत्क) विशेषण का प्रयोग हुआ है, जो मकान मालिक के तत्स्वामित्व का द्योतक है। - साधु उपयोग हेतु शय्या-संस्तारक, पीठ-फलक आदि बाहर से, अन्य व्यक्ति से याचित कर लाता है। उपयोग में लेने के पश्चात् उन्हें वह वापस उनके स्वामी को लौटा देता है, इसलिए वे भी प्रत्यर्पणीय कहे जाते हैं। उनके लिए यहाँ 'पाडिहारिय' (प्रातिहारिक) शब्द का प्रयोग हुआ है। __ इन दोनों ही प्रकार के शय्या, पीठ, फलक आदि उपकरणों को साधु उनके मालिकों से पुनः आज्ञा लिए बिना यदि उपाश्रय से बाहर, अन्यत्र ले जाता है तो यह दोषपूर्ण है, अनधिकारपूर्ण चेष्टा है। क्योंकि साधु वाक्संयमी होता है। वह जैसा बोलता है, कहता है, ठीक वैसा ही करता है। जिस वस्तु को जहाँ काम में लेने हेतु लिया हो, उसको वह वहीं काम में लेने का अधिकारी है। यदि अन्यत्र ले जाना हो तो यह आवश्यक है कि वह उन उपकरणों के स्वामी से पुनः पूछे, अनुज्ञा प्राप्त करे। अनुज्ञा प्राप्त किए बिना उन्हें अन्यत्र ले जाना अनुचित है, वहाँ अदत्त का दोष भी लगता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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