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________________ द्वितीय उद्देशक - भिक्षाकाल से पूर्व स्वजन - गृहप्रवेश का प्रायश्चित्त भावार्थ ३८. जो भिक्षु दाता द्वारा दान दिए जाने से पहले या दान दिए जाने के पश्चात् उसकी प्रशंसा करता है अथवा प्रशंसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। - विवेचन - साधु का जीवन निःस्पृह और अनासक्त होता है । आहार, पात्र, वस्त्र आदि में न उसे मोह होता है, न आसक्ति ही । इसलिए वह किसी भी आकर्षण के बिना स्वाभाविक रूप में अपनी आवश्यकता के अनुसार शास्त्रमर्यादानुरूप याचित करता है । यदि कोई साधु कहीं भिक्षा आदि हेतु किसी के घर जाए तब वहाँ दान लेने से पूर्व दाता की प्रशंसा करना, इस सूत्र में दोषपूर्ण और प्रायश्चित्त योग्य बताया गया है। क्योंकि वैसा करने में सरस, स्वादिष्ट आहार, उत्तम वस्त्र, पात्र आदि प्राप्त करने के प्रति उसके मन में रही आसक्ति या लोलुपता आशंकित है । वह सोचता है कि यदि वह दाता की दान देने से पूर्व प्रशंसा करेगा तो उसे अच्छी वस्तुएँ प्राप्त होगी। साधु के लिए ऐसा करना सर्वथा अनुचित है। पूर्व- संस्तव का एक अन्य अभिप्राय किसी साधु द्वारा भिक्षा लेने से पूर्व उत्तम भिक्षा पाने के लोभ में अपने उच्च कुल, विद्या, आचार, तप और चमत्कारिक व्यक्तित्व की प्रशंसा किया जाना भी हैं। वह मन में ऐसा सोचता है कि इनसे प्रभावित होकर गृहस्थ मुझे उत्तम भिक्षा देगा। यह भी दोषपूर्ण है । पश्चात् - संस्तव का तात्पर्य ( मनोनुकूलं) भिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् साधु द्वारा दाता की प्रशंसा किया जाना है । वैसा करने में साधु के मन में यह भाव रहता है कि प्रशंसा करने से भविष्य में भी उसे उत्तम पदार्थ प्राप्त होते रहेंगे। यह दोषपूर्ण हैं, अत एव प्रायश्चित्त योग्य है। Jain Education International भिक्षाकाल से पूर्व स्वजन - गृहप्रवेश का प्रायश्चित्त जे. भिक्खू समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा दूइज्जमाणे घुरेसंथुयाणि वा पच्छासंथुयाणि वा कुलाई पुव्वामेव अणुपविसित्ता पच्छा भिक्खायरियाए अणुपविसइ अणुपविसंतं वा साइज्जइ ॥ ३९ ॥ कठिन शब्दार्थ - समाणे- गृद्धि रहित, मर्यादा सहित स्थिरवास में स्थित, वसमाणेअष्टमास कल्प तथा चातुर्मासकल्प में नवकल्प विहरणशील, गामाणुगामं - ग्रामानुग्राम एक गांव से दूसरे गांव में, दूइज्माणे विहार विचरण करता हुआ, पुरेसंथुयाणि ३७ - — For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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