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________________ - निशीथ सूत्र किसी क्षेत्र में - स्थान में मासकल्प के अनुसार एक मास अर्थात् २९ दिन रहने के पश्चात्. तथा चातुर्मास कल्प के अनुसार किसी एक क्षेत्र - स्थान में आषाढ पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक रहने के पश्चात् भी वहाँ से विहार न करे तो साधु को 'कालातिक्रान्त क्रिया' नामक दोष लगता है, क्योंकि उसमें कल्पयोग्य काल. का अतिक्रमण या उल्लंघन होता है। ___ एक क्षेत्र - स्थान में एक मास पर्यन्त प्रवास करने के पश्चात् दो मास अन्यत्र विहारचर्या में व्यतीत किए बिना वापस वहीं आकर रहे तथा एक क्षेत्र - स्थान में चातुर्मास करने - चार मास प्रवास करने के पश्चात् आठ मास अन्यतर विहारचर्या में व्यतीत किए बिना पुनः वहीं आकर रहे तो साधु को 'उपस्थान क्रिया' नामक दोष लगता है। साधु को वायुवत् अप्रतिबन्ध-विहारी कहा है। जिस प्रकार वायु किसी एक स्थान पर नहीं टिकती, साधु भी निरन्तर स्थायी रूप से किसी एक स्थान पर नहीं रहता। क्योंकि एक स्थान पर रहने से लोगों के साथ परिचय बढता है। परिचय बढने से ममत्व और मोह उत्पन्न होता है, जिससे संयम व्याहत होता है। ___ साधु तो सर्वस्व त्यागी होता है। संयम के उपकरणभूत शरीर का निर्वाह करने के लिए केवल आहार, पानी, वस्त्र, पात्र आदि आवश्यक उपधि निरवद्य, निर्दोष रूप में लेने तथा रहने के लिए स्थान याचित. कर (शास्त्रमर्यादानुरूप) वह जीवन निर्वाह करता है। उसकी किसी के प्रति आसक्ति या ममता नहीं होती। लोगों के साथ उसका केवल आध्यात्मिक एवं धार्मिक संबंध होता है। . साधु को स्व-पर-कल्याणपरायण कहा गया है। वह संयम की आराधना द्वारा आत्मकल्याण करता है तथा उपदेश द्वारा जन-जन को संयम की दिशा में प्रेरित करता रहता है। उसका किसी एक स्थान से संबंध नहीं होता है। वह तो मासकल्प और चातुर्मासकल्प के अतिरिक्त सदैव विहारचर्या में ही रहता है। इसीलिए कहा गया है - "साधु तो रमता भला, बहता निर्मल नीर।" जिस प्रकार एक स्थान पर निरन्तर पड़ा रहने वाला पानी गंदा हो जाता है एवं बहता हुआ पानी निर्मल रहता है, उसी प्रकार एक स्थान पर नित्य रहने वाले साधु का संयम उज्ज्वल, निर्मल रह सके, यह कठिन है। . पूर्व-पश्चात् प्रशंसा करने का प्रायश्चित्त जेभिक्खू पुरेसंथवं वा पच्छासंथवं वा करेइ करेंतं वा साइजइ॥ ३८॥ कठिन शब्दार्थ - पुरेसंथवं - पूर्वसंस्तव - दाता द्वारा दान दिए जाने से पहले उसकी प्रशंसा, पच्छासंथवं - पश्चात् संस्तव - दान देने के पश्चात् दाता की प्रशंसा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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