SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [6] को जीवन का प्राण कहा है। सम्यक् साधना से ही साधक अपने साध्य को प्राप्त करता है । साधक के कण-कण में त्याग तप स्वाध्याय ध्यान की सरल सरिता बहती रहनी चाहिए । किन्तु कभी संयम पालन के दौरान ज्ञात अथवा अज्ञात अवस्था में साधक के द्वारा अपने स्वीकृत व्रतों में स्खलना (दोष) हो सकती है। उस स्थिति में उन दोषों के परिमार्जन के लिए प्रायश्चित्त साहित्य (छेद सूत्रों) का निर्माण भी किया गया है, ताकि संयमी साधक अपने स्वीकृत व्रतों में लगे दोषों का प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण कर सके । छेद सूत्रों में लगे दोषों के परिमार्जन की विधि का निरूपण किया गया है। यद्यपि छेद सूत्रों में उन सभी स्थानों का निषेध किया गया है, जिनके सेवन से संयमी जीवन धूमिल होता, फिर भी अनाभोग से कभी दोष लग सकता है। अतएव प्रभु ने मानव मन की कमजोरियों को ध्यान में रखते हुए दोषों के परिमार्जन के विधि-विधानों के साहित्य का निर्माण किया है। जैन दर्शन में साधना के लिए दो पद्धतियों का निरूपण किया गया है। एक उत्सर्ग मार्ग, दूसरा अपवाद मार्ग । उत्सर्गमार्ग यानी राजमार्ग स्वीकृत व्रतों का निरतिचार पालन करना, चारित्र और सद्गुणों की अभिवृद्धि करते हुए संयम मार्ग में निरन्तर आगे बढ़ते रहना, दूसरा अपवाद मार्ग, शारीरिक अथवा मानसिक दुर्बलता के कारण असमर्थ संयमी साधक के लिए परिस्थिति उत्पन्न होने पर अपवाद मार्ग का सेवन भी किया जा सकता है। पर ज्यों ही शारीरिक और मानसिक दुर्बलता दूर हो त्यों ही उसे अपवाद मार्ग में लगे दोषों का प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण कर लेना चाहिए । उत्सर्ग मार्ग सामान्य विधि मार्ग है जिस पर संयमी साधक निरन्तर चलता है। बिना बिशेष परिस्थिति के साधक को उत्सर्ग मार्ग को नहीं छोड़ना चाहिए, जो साधक बिना विशेष परिस्थिति के ही अपवाद मार्ग को अपना कर संयम में दोष लगाता है, वह प्रभु की आज्ञा का आराधक नहीं, किन्तु विराधक होता है। संयमी साधक की सजगता इसी में है कि जिस विशेष परिस्थिति के कारण उसे अपवाद का सेवन करना पड़ा, उस परिस्थिति के समाप्त होने पर अपवाद के सेवन में लगे दोष का प्रायश्चित्त लेकर पुनः उत्सर्ग मार्ग में उपस्थित हो जाय । संयमी साधक को एक बात ओर ध्यान रखनी चाहिए अपवाद - वास्तविक, अतिआवश्यक एवं संयम को बचाने के लिए होना चाहिए, न कि इन्द्रिय पोषण एवं सुखशीलियापन के लिये । अपवाद सेवन के पीछे साधक की भावना उत्सर्ग की रक्षा करने की होनी चाहिये, न कि उसे ध्वंस करने की । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy