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________________ [5] गणधर भगवन्त मात्र द्वादशांगी की रचना करते हैं। शेष अंग बाह्य आगमों की रचना तो स्थविर (श्रुत केवली) भगवन्तों द्वारा की जाती है। जो स्थविर (श्रुत केवली) दस पूर्व से चौदह पूर्व के ज्ञाता होते हैं, उन्हीं के द्वारा रचित आगम जैन साहित्य जगत में मान्य है। इसका कारण वे स्थविर भगवन्त (श्रुत केवली) सूत्र और अर्थ दोनों दृष्टि से अंग साहित्य में पारंगत होते हैं। आप जो भी रचना करते हैं उसमें किञ्चित् मात्र भी विरोधाभास नहीं होता। अन्तर मात्र इतना ही है कि जो कथन तीर्थंकर प्रभु करते हैं उस तत्त्व को प्रत्यक्ष रूप से जानते देखते हैं, जबकि श्रुत केवली अपने श्रुतज्ञान के आधार से उन्हीं तत्त्वों को परोक्ष रूप से जानते हैं। उनकी रचनाएं इसलिए भी प्रामाणिक है क्योंकि वे नियमतः सम्यग् दृष्टि हैं। . वर्तमान में जो आगम साहित्य उपलब्ध है। इसका समय-समय पर विभिन्न रूप से वर्गीकरण हुआ है। पूर्ववर्ती आचार्यों ने आगम तीन प्रकार के बतलाये हैं। यथा - सुत्तागम, अत्थागम और तदुभयागम, अन्य दृष्टि से आगम के तीन भेद इस प्रकार किये गये हैं - आत्मागम, अनन्तरागम और परंपरागम। इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है। तीर्थकर के लिए सूत्र आत्मागम है। वही अर्थ गणधरों के लिए अनन्तागम है। गणधरों के लिए सूत्र आत्मागम और गणधर शिष्यों के लिए सूत्र अन्तरागम और अर्थ परम्परागम है। गणधर शिष्य के लिए और उनके पश्चात् शिष्य परंपरा के लिए अर्थ और सूत्र दोनों ही आगम परम्परागम हैं। इस वर्गीकरण में आगम का मूल स्रोत, प्रथम उपलब्धि और पारम्परिक उपलब्धि इन तीनों दृष्टियों से चिंतन किया गया है। समवायांग और अनुयोगद्वार सूत्र में केवल द्वादशांगी का निरूपण हुआ है। जबकि आचार्य देववाचक ने नंदी सूत्र में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद किये हैं। साथ ही अंग बाह्य के आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त कालिक और उत्कालिक के रूप आगम साहित्य का निरूपण किया है। एक अन्य वर्गीकरण विषय सामग्री (अनुयोग) के हिसाब से किया गया है- यथा द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, गणितानुयोग एवं धर्मकथानुयोग। सबसे अर्वाचीन वर्गीकरण जो वर्तमान में उपलब्ध है वह ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद और आवश्यक सूत्र। जैन आगम साहित्य में जो चार अनुयोग हैं उन में चरणकरणानुयोग का अति गौरवपूर्ण स्थान है। चरणानुयोग का अर्थ आचार सम्बन्धी नियमावली, मर्यादा प्रभृति की व्याख्या। प्रभु ने संयमी साधक के लिए निर्दोष, सुदृढ़ संवम पालन पर विशेष बल दिया है। क्योंकि साधन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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