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________________ द्वितीय उद्देशक - बहुमूल्य वस्त्र धारण करने का प्रायश्चित्त ., २९ भावार्थ - २२. जो भिक्षु अखण्ड चर्म धारण करता है, रखता है. या उपयोग में लेता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - किसी शारीरिक प्रयोजनवश आवश्यक होने पर साधु.चर्म का उपयोग कर सकता है। इसलिए वह उसे रख सकता है, किन्तु अखण्डित या समग्र चर्म को नहीं रख सकता, क्योंकि वह परिग्रह रूप है। साधु केवल चर्मखण्ड या टुकड़े को ही काम में लेने का अधिकारी है, जो अपेक्षित मर्यादानुरूप होने के कारण परिग्रह में नहीं गिना जाता। अखण्ड चर्म को रखना परिग्रह की दृष्टि से दोषपूर्ण है, प्रायश्चित्त योग्य है। - बहुमूल्य वस्त्र धारण करने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू कसिणाई वत्थाई धरेइ धरेतं वा साइज्जइ॥ २३॥ कठिन शब्दार्थ - कसिणाई - कृत्स्न - मूल्य सर्वस्व - बहुमूल्य। भावार्थ - २३. जो भिक्षु शास्त्र स्वीकृत, सीमित मूल्य से अधिक कीमती वस्त्र धारण करता है या धारण करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। : विवेचन - इस सूत्र में कक्षिण - कृत्स्न शब्द का प्रयोग बहुमूल्य या बेशकीमती वस्त्रों के लिए हुआ है। साधु अपरिग्रही होता है। अत एव उसका जीवन बहुत ही सरल एवं सादा होता है। वह जो भी वस्तु उपयोग में लेता है, वह केवल आवश्यकता पूरक होने के साथसाथ शास्त्रानुमोदित और मर्यादित होती है। - इस सूत्र में साधु के लिए बहुमूल्य वस्त्र धारण करना परिवर्जित, निषिद्ध कहा गया है। ... . कृत्स्न या बहुमूल्य वस्त्र द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की दृष्टि से चार प्रकार के बतलाए गए हैं। - द्रव्य-कृत्स्न के अन्तर्गत वे वस्त्र आते हैं, जो बहुत ही बारीक, मुलायम ऊन या सूत के धागे से.बुने हुए होते हैं। शास्त्रों में रत्न-कम्बल का जो प्रयोग आता है, वह ऐसी कम्बल के लिए हुआ है, जो अत्यन्त सूक्ष्म, सुकोमल ऊन या सूत के तन्तुओं से बुनी हुई होती है तथा जवाहिरात की तरह बेशकीमती होती है। .. क्षेत्र-कृत्स्न में वे वस्त्र आते हैं, जो क्षेत्र विशेष में दुर्लभ होने के कारण बहुमूल्य होते हैं। काल-कृत्स्न में उन वस्त्रों का समावेश हैं, जो काल विशेष में कठिनता से मिलने के कारण बहुमूल्य होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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