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________________ ३९२ निशीथ सूत्र वायुकाय, वनस्पतिकाय एवं त्रसकाय - इन षट्कायिक जीवों की विराधना का, हिंसा का प्रत्याख्यान कर देता है। वह अपनी दैनंदिन चर्या में इस बात का सदैव ध्यान रखता है कि उस द्वारा जहाँ तक उसका वश चले किन्हीं जीवों की विराधना न हो। इसी कारण भिक्षु पादविहारी होता है। वह भूमि पर यतनापूर्वक चलता है, किसी वाहन का प्रयोग नहीं करता। इसी संदर्भ में यहाँ नौका प्रयोग के विविध प्रसंगों का वर्णन है, जो प्रायश्चित्त योग्य है। अप्काय की अत्यधिक हिंसा को देखते हुए भिक्षु के लिए नौका द्वारा विहार करना, . जाना निषिद्ध है, किन्तु किन्हीं विशेष परिस्थितियों के कारण अपवाद के रूप में नौका प्रयोग का विशेष नियमों, मर्यादाओं या सीमाओं के साथ विधान किया गया है। वे नियम, मर्यादाएँ या सीमाएँ ऐसी हैं, जिनके कारण भिक्षु अप्काय आदि की हिंसा से अधिकाधिक बचा रह सके। भिक्षु प्रवचन प्रभावना या धर्मप्रसार की दृष्टि से कहीं जाने हेतु नौका का प्रयोग नहीं कर सकता, क्योंकि सबसे पहले उसे आत्म-कल्याण साधना आवश्यक है। नौका प्रयोग में होने वाली अप्काय की विपुल हिंसा से उसका आत्म लक्ष्य व्याहत होता है। किन्तु कतिपय अनिवार्य परिस्थितियों के कारण सूत्रोक्त सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए उसके लिए नौका प्रयोग का विधान है। ___ नौका विहार का प्रमुख कारण तो कल्पमर्यादा का परिपालन है साथ ही कोई संघीय भिक्षु अन्यत्र रुग्ण हो, उसके वैयावृत्य की समीचीन व्यवस्था न हो, स्थल मार्ग द्वारा वहाँ यथासमय पहुँचना अतीव कठिन हो तो नौका प्रयोग विहित है। इसी प्रकार भिक्षु जहाँ विचरण करता हो, दुर्भिक्ष आदि के कारण भिक्षा दुष्प्राप्य हो, स्थल के मार्ग से ऐसे क्षेत्र में पहुँचना अशक्य हो, जहाँ भिक्षा प्राप्त हो सके तब नौका प्रयोग विहित माना गया है। स्थल मार्ग अत्यन्त जीवाकुल हो, बहुत लम्बा हो जिससे बीच में शुद्ध, ऐषणीय आहार-पानी प्राप्त न हो सके, जिसमें चोरों, दस्युओं, अनार्यजनों एवं दुर्दान्त, हिंसक जीवों का भय हो, जो राजा द्वारा निषिद्ध हो, वैसी स्थिति में नौका विहार का आपवादिक विधान है। भिक्षु सर्वथा अपरिग्रही, स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर होता है। वह किसी पर किसी भी रूप भार नहीं बनता। कोई स्वेच्छा से त्याग-भावना पूर्वक शास्त्रीय मर्यादानुकूल निरवद्य रूप में उसकी आहार-पानी, वस्त्र, पात्र तथा चर्यानुगत आवश्यकताओं की पूर्ति में सहयोगी होता है तभी वह भिक्षा आदि के रूप में उसका सहयोग स्वीकार करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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