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________________ अष्टादश उद्देशक - नौका विहार विषयक प्रायश्चित्त ३९१ २४. जो भिक्षु स्वयं जल में रहते हुए जल में स्थित गृहस्थ से अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। २५. जो भिक्षु स्वयं जल में रहते हुए कीचड़ में स्थित गृहस्थ से अशन-पान-खाद्यस्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। २६. जो भिक्षु स्वयं जल में रहते हुए स्थल पर खड़े गृहस्थ से अशन-पान-खाद्यस्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। २७. जो भिक्षु स्वयं कीचड़ में रहते हुए नौका स्थित गृहस्थ से अशन-पान-खाद्यस्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है या ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। २८. जो भिक्षु स्वयं कीचड़ में रहते हुए जल में स्थित गृहस्थ से अशन-पान-खाद्यस्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। २९. जो भिक्षु स्वयं कीचड़ में रहते हुए कीचड़ में स्थित गृहस्थ से अशन-पान-खाद्यस्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। ३०. जो भिक्षु स्वयं कीचड़ में रहते हुए स्थल पर खड़े गृहस्थ से अशन-पान-खाद्य'स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। ३१. जो भिक्षु स्वयं स्थल पर रहते हुए नौका स्थित गृहस्थ से अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है या ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। ३२.. जो भिक्षु स्वयं स्थल पर रहते हुए जल में स्थित गृहस्थ से अशन-पान-खाद्यस्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। . ३३. जो भिक्षु स्वयं स्थल पर रहते हुए कीचड़ में स्थित गृहस्थ से अशन-पान-खाद्यस्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। ३४. जो भिक्षु स्वयं स्थल पर रहते हुए स्थल पर खड़े गृहस्थ से अशन-पान-खाद्य- . स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। इस प्रकार उपर्युक्त अविहित कार्य करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। . विवेचन - एक मुमुक्षु व्यक्ति जब भिक्षु जीवन में दीक्षित होता है तब वह समग्र सावध योगों का परित्याग कर देता है तथा प्राणातिपात-विरमण - अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों को अपनाता है। प्राणातिपात-विरमण के अन्तर्गत वह पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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