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________________ सप्तदश-उद्देशक - शब्द-श्रवण-आसक्ति विषयक प्रायश्चित्त ३८५ . आदि के विषय में (प्रशंसा-निंदा मूलक) शब्द श्रवण की इच्छा से मनःसंकल्प करता है या ऐसा निश्चय करने वाले का अनुमोदन करता है। - २६८. जो भिक्षु राष्ट्रविप्लव, बाह्य-आभ्यंतर उपद्रव, पारस्परिक अन्तर्कलह, वंशपरंपरागत वैर, घोर युद्ध, महासंग्राम, कलह या निम्नवचन प्रयोग के विषय में (प्रशंसा-निंदा मूलक) शब्द श्रवण की इच्छा से मनःसंकल्प करता है अथवा ऐसा निश्चय करने वाले का अनुमोदन करता है। . २६९. जो भिक्षु अनेक प्रकार के महोत्सवों में, जिनमें स्त्री, पुरुष, वृद्ध, अधेड़, बच्चे सामान्य वस्त्राभूषणों या विशेष अलंकार सज्जित होकर गाते हुए, बजाते हुए, नाचते हुए, हंसते हुए, क्रीड़ा करते हुए, मोहित करते हुए या विपुल अशन-पान-खाद्य-स्वाध रूप चतुर्विध आहार परस्परः बांट कर खाते हुए हों, के विषय में (प्रशंसा-निंदा मूलक) शब्द श्रवण की इच्छा से मनःसंकल्प करता है या ऐसा निश्चय करते हुए का अनुमोदन करता है। २७०. जो भिक्षु ऐहिक, पारलौकिक, दृष्ट या अदृष्ट, सुने-अनसुने, ज्ञात-अज्ञात शब्दों को सुनने की इच्छा रखता हैं, उनमें लोलुप बनता है या अत्यन्त आसक्त होता है अथवा इन्हें सुनने की इच्छा करने वाले, लोलुप होने वाले या अत्यन्त आसक्त होने वाले का अनुमोदन करता है। ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। इस प्रकार पूर्वोक्त २५३ से २७० तक के सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त स्थान का, तद्गत दोषों का सेवन करने वाले भिक्षु को उद्घातिक परिहार तप रूप लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। इस प्रकार - अध्ययन (निशीथ सूत्र) में सप्तदश उद्देशक परिसमाप्त हुआ। विवेचन - सूत्रों में विविध विषयों के संदर्भ में कानों से सुनने की आसक्ति का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। बारहवें उद्देशक में चक्षु दर्शन की आसक्ति के संदर्भ में किया गया विवेचन यहाँ भी योजनीय है। अन्तर केवल इतना सा है, वहाँ प्रत्यक्ष दर्शन हेतु जाने का निषेध है तथा यहाँ उन-उन भौतिक विषयों के संदर्भ में राग एवं कुतूहलवश सुनने का प्रतिषेधःकिया गया है। || इति निशीथ सूत्र का सप्तदश उद्देशक समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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