SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निशीथ सूत्र १६. जो साधु किसी अन्यतीर्थिक द्वारा या गृहस्थ द्वारा कर्तरिका का परिष्करण कराता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। १७. जो साधु किसी अन्यतीर्थिक द्वारा या गृहस्थ द्वारा नखछेदनक का परिष्करण कराता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। १८. जो साधु किसी अन्यतीर्थिक द्वारा या गृहस्थ द्वारा कर्णशोधनक का परिष्करण कराता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - शास्त्रों में ऐसा विधान है कि साधु शरीर की अनिवार्य आवश्यकताओं एवं संयम में सहायक होने की दृष्टि से कतिपय उपकरण अपने पास रख सकता है। ..." ____ जो उपकरण साधुओं के लिए सदा आवश्यक होते हैं, उन्हें औपधिक उपकरण कहा जाता है। मर्यादानुगत वस्त्र, पात्र, रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका आदि इनके अन्तर्गत हैं। ... कतिपय उपकरण ऐसे हैं, जो विशेष परिस्थितिवश रखे जाते हैं, उन्हें औपग्रहिक कहा जाता है। वे दो प्रकार के हैं। कुछ ऐसे हैं, जो सदा काम में आते हैं, जैसे वृद्धावस्था में लाठी तथा नैत्र दुर्बलता में चश्मा आदि। कुछ ऐसे हैं कि कभी-कभी काम में आते हैं, उनमें उपर्युक्त सूत्रों में निरूपित सूई, कतरणी आदि शामिल हैं। विशेष प्रसंगानुसार छत्र, चर्म आदि का भी औपग्रहिक उपकरणों में उल्लेख हुआ है। औपग्रहिक उपकरण प्रत्यर्पणीय हैं। काम में लेने हेतु साधु गृहस्थों से उन्हें लेते हैं और उपयोग करने के पश्चात् वापस उनका प्रत्यर्पण कर देते हैं - गृहस्थों को लौटा देते हैं। इसलिए वे प्रत्यर्पणीय कहे जाते हैं। यद्यपि प्रत्यर्पणीय उपकरण काम में लेने के बाद तत्काल लौटा देने का विधान है, किन्तु फिर भी क्षेत्र काल तथा परिवर्तित दैहिक स्थिति के अनुसार, संभावित अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु, यह सोचते हुए कि कदाचन् वे अन्यत्र प्राप्त न हो सकें, साधु अति आवश्यक औपग्रहिक उपकरण साथ में रख सकता है। इन उपकरणों में दण्ड, लाठी, चश्मा आदि समझना चाहिए, किन्तु सूई, कैंची आदि धातुओं के उपकरणों को नहीं समझना चाहिए। इन सूत्रों में सूई आदि के परिष्करण को दोषयुक्त, प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि साधु की इनके प्रति जरा भी आसक्ति न रहे। आसक्ति ममत्व उत्पन्न करती है। ममत्व मोह का पर्याय है, जो संयम की शुद्धता में व्यवधान करता है। ___ साधु अनासक्त, नि:स्पृह और ममता रहित भाव से यथावस्थित उपकरणों का आवश्यकतानुरूप उपयोग करे। उसका मुख्य लक्ष्य तो आत्मोपासना एवं संयमाराधना है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy