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________________ त्रयोदश उद्देशक - पार्श्वस्थ आदि की वंदना-प्रशंसा करने का प्रायश्चित्त ३०१ ही बन जाता है तथा प्रियधर्मी के साथ रहता हुआ प्रियधर्मी बन जाता है इस तरह की प्रवृत्ति करने वाला संसक्त कहलाता है। . ५. नित्यक - जो मासकल्प व चातुर्मासक कल्प की मर्यादा का उल्लंघन करके निरंतर एक ही क्षेत्र में रहता है वह कालातिक्रांत - नित्यक कहलाता है, आचारांग श्रुतस्कन्ध २ अ० २ उ० २ में कही गई उपस्थान क्रिया का तथा कालातिक्रांत क्रिया का सेवन करने वाला नित्यक कहलाता है अथवा जो अकारण सदा एक स्थान पर ही स्थिर रहता है, विहार नहीं करता है वह नित्यक कहा जाता है। ६. काथिक - स्वाद्याय आदि आवश्यक कृत्यों की छोड़ करके जो देशकथा आदि कथा करता रहता है, वह काथिक कहा जाता है। आहार वस्त्र पात्र यश या पूजा-प्रतिष्ठा प्राप्ति के लिए जो धर्मकथा करता ही रहता है वह काथिक कहा जाता है। . ७. प्रेक्षणिक - जनपद आदि अनेक दर्शनिय स्थलों का या नाटक नृत्य आदि का जो प्रेक्षण करता है वह संयम लक्ष्य तथा जिनाज्ञा की उपेक्षा करने से पासणिय - प्रेक्षणिक कहा जाता है। ... ८. मामक - जो आहार में आसक्ति रखता है संविभाग नहीं करता है, निमंत्रण नहीं देता है, उपकरणों में अधिक ममत्व रखता है, किसी को अपनी उपधि के हाथ नहीं लगाने देता है, शरीर में ममत्व रखता है, कुछ भी कष्ट परीषह सहने की भावना न रखते हुए सुखैषी रहता है, वह मामक कहलाता है। ____९. संप्रसारिक - गृहस्थ के कार्यों में अल्प या अधिक भाग लेने वाला या सहयोग देने वाला संप्रसारिक कहा जाता है। जो साधु संसारिक कार्यों में प्रवृत होकर गृहस्थों के पूछने पर या बिना पूछे ही अपनी सलाह देवे कि ऐसा करो' 'ऐसा मत करो' 'ऐसा करने से बहुत नुकसान होगा', 'मैं कहूँ वैसा ही करो', इस प्रकार कथन करने वाला संप्रसारिक कहा जाता है। . अर्हत् परंपरा में वंदनीयता का आधार सच्चारित्र्य है। यह साधुत्व का मूल गुण है। ."छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्" - के अनुसार यदि मूल छिन्न हो जाय तो शाखा, पत्र, पुष्प, फलादि कुछ भी नहीं रहते। यदि कृत्रिम रूप में वे दिखते भी हैं तो निस्तथ्य हैं। ____ अनादर किसी का नहीं करना चाहिए किन्तु शास्त्रीय विधि से वंदन उन्हीं को करना विहित है, जो पाँच महाव्रतों का तीन योग और तीन करण पूर्वक पालन करते हैं। साधु का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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