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________________ द्वादश उद्देशक - रोम युक्त चर्म रखने का प्रायश्चित्त २५९ . विवेचन - वनस्पतिकाय के साधारण एवं प्रत्येक के रूप में दो भेद किए गए हैं। जहाँ एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं, उसे 'साधारण' कहा जाता है। जहाँ एक शरीर में एक ही जीव होता है, उसे 'प्रत्येक' कहा जाता है। धान्य एवं बीजयुक्त प्रत्येक वनस्पतिकाययुक्त आहार लेने का प्रायश्चित्त चतुर्थ उद्देशक : में आ चुका है। प्रसंगोपात रूप में यहाँ प्रत्येक काय मिश्रित आहार का तात्पर्य निम्नांकित है - १. शस्त्र-अपरिणत नमकयुक्त आहार। .. २. सचित्त जल युक्त तक्र (छाछ) या आम्र रस आदि (शस्त्र - अपरिणत)। ३. पके हुए, चूल्हे से नीचे उतारे हुए व्यंजन में धनिया पत्ती आदि का ऊपर से सम्मिश्रण। यदि भिक्षु को यह ज्ञात हो जाए तो उसे उस आहार को नहीं लेना चाहिए। यदि ग्रहण करने के पश्चात् मालूम पड़े तो उस आहार का सेवन न कर परठना विहित है। रोमयुक्त चर्म रखने का प्रायश्चित्त - जे भिक्खू सलोमाई चम्माइं धरेइ धरेंतं वा साइजइ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - धरेइ - रखता है। भावार्थ - ५. जो भिक्षु (उपयोग हेतु) रोमयुक्त चर्म रखता है एवं रखने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। ___ विवेचन - उत्सर्गमार्गापेक्षया भिक्षु को चर्म रखना नहीं कल्पता। अत एव यहाँ उसे प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। किन्तु वृद्धत्व, दौर्बल्ययुक्त विशेष दैहिक अवस्था तथा रुग्णता इत्यादि स्थितियों में अपवाद रूप में सरोम चर्म रखना निषिद्ध नहीं है क्योंकि इसके उपयोग से मांस-मज्जा आदि की न्यूनता से कृश शरीर को सोने बैठने आदि में कुछ आराम मिल सकता है। ___इस आपवादिक विधान में भी यह ज्ञातव्य है कि यदि चर्म रोम रहित हो, कटा हुआ हो तो उसे साधु-साध्वियों द्वारा समय विशेष तक रखा जाना कल्प्य है। साध्वी के लिए सरोमचर्म रखना सर्वथा निषिद्ध है। क्योंकि उसके स्पर्श से विपरीत लैंगिकता का आभास होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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