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________________ २५८ निशीथ सूत्र आशय यह है - अध्यात्म साधना निष्णात पुरुष अपने स्वरूप में इतना तन्मय होता है कि बहिर्जगत् की ओर उसकी दृष्टि ही नहीं जाती। यदि जाती है तो आध्यात्मिक दृष्टि से उसकी दुर्बलता है। दुर्बलता वरेण्य नहीं है, दोष है। अत एव उपर्युक्त प्रवृत्तियाँ प्रायश्चित्त योग्य बतलाई गई हैं। प्रत्याख्यान भंग करने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अभिक्खणं अभिक्खणं पच्चक्खाणं भंजइ भंजंतं वा. साइजइ॥ ३॥ कठिन शब्दार्थ - अभिक्खणं - बार-बार, भंजइ - भग्न करता है, भंजतं - भग्न करने वाले का। भावार्थ - ३. जो भिक्षु प्रत्याख्यान-स्वीकृत त्याग बार-बार भंग करता है या भंग करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - प्रत्याख्यान का अभिप्राय आत्मा का अकल्याण करने वाले कर्मों अथवा सावध कर्मों के परित्याग का संकल्प, उद्घोषण या आख्यान है। साधनामय जीवन में प्रत्याख्यान का सर्वोपरि महत्त्व है। प्रत्याख्यान द्वारा गृहीत व्रत या प्रतिज्ञा का यावज्जीवन, संपूर्णत: परिपालन करना चाहिए। इसी दृष्टि से यहाँ प्रत्याख्यान भंग को दोषयुक्त बतलाया गया है। निशीथ भाष्य में पुनः-पुनः को तीन बार तक सीमित किया है। उसके पश्चात् विहित प्रायश्चित्त आता है। ___दशाश्रुतस्कंध में इसे शबल दोष कहा गया है, जिससे संयम के शुद्ध स्वरूप पर मालिन्यपूर्ण धब्बे लगते हैं, वह विद्रूप हो जाता है। ___निशीथ भाष्य में प्रत्याख्यान भंग करने से होने वाले दोषों का विशद् वर्णन हुआ है, जो पठनीय है। प्रत्येक काययुक्त आहार सेवन विषयक प्रायश्चित जे भिक्खू परित्तकायसंजुत्तं आहारं आहारेइ आहारेंतं वा साइज्जइ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - परित्तकाय - प्रत्येककाय - प्रत्येककायिक वनस्पति, संजुत्तं - संयुक्त। भावार्थ - ४. जो भिक्षु प्रत्येक काय (वनस्पति) संयुक्त आहार करता है या करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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