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________________ एकादश उद्देशक - स्व-पर-विपर्यासकरण - प्रायश्चित्त २३९ भावार्थ - ६९. जो भिक्षु अपने आपको विस्मित बनाता है या विस्मित बनाते हुए का अनुमोदन करता है। ७०. जो भिक्षु दूसरे को विस्मित बनाता है या विस्मित बनाते हुए का अनुमोदन करता है। ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - विशिष्ट विद्या, मंत्र, तंत्र, तपश्चरणजनित लब्धि - सिद्धि विशेष, इन्द्रजाल (जादूगरी), निमित्त ज्ञान, ज्योतिष तथा सामुद्रिक शास्त्र - हस्तरेखा आदि द्वारा वर्तमान, भूत एवं भविष्य विषयक कथन, यौगिक सिद्धि द्वारा अन्तर्धान - ये चमत्कार उत्पन्न करने के माध्यम या साधन हैं, जिन्हें देखकर लोग विस्मित, आश्चर्यान्वित, चकित हो जाते हैं। इनसे आत्मा का कोई हित सिद्ध नहीं होता। बाह्य मनोरंजन, विनोद या अर्थ प्राप्ति आदि के रूप में ये लौकिक स्वार्थ के ही पूरक हैं। भिक्षु के लिए ये सर्वथा त्याज्य हैं, भिक्षु तो सावध वर्जित, लौकिक स्वार्थ विहीन, अध्यात्म-मार्ग का पथिक होता है। ये सभी, जो लोकैषणा तथा वित्तैषणा आदि से संबद्ध हैं, जिनसे भिक्षु को सदैव विमुक्त रहना चाहिए। वह तो मुमुक्षा - मोक्षाभिवाञ्छा का ही लक्ष्य लिए जीवन में सर्वथा, सर्वदा उद्यमशील रहे। ... इन सूत्रों में इसी कारण चामत्कारिक स्थितियों द्वारा स्वयं विस्मयान्वित होना तथा अन्य को आश्चर्यान्वित करना और वैसा करते हुए का अनुमोदन करना दोषयुक्त, प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। स्व-पर-विपर्यासकरण - प्रायश्चित्त जे भिक्खू अप्पाणं विप्परियासेइ विप्परियासेंतं वा साइज्जइ॥ ७१॥ जे भिक्खू परं विप्परियासेइ विप्परियासेंतं वा साइजइ॥७२॥ · कठिन शब्दार्थ - विप्परियासेइ - विपर्यस्त - विपरीत करता है। भावार्थ - ७१. जो भिक्षु अपने स्वयं का - अपने वास्तविक स्वरूप का विपर्यास करता है - उसको विपरीत करता है या बनाता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। . ७२. जो भिक्षु दूसरे का - उसके वास्तविक स्वरूप का विपर्यास करता है या विपरीत करता है, बनाता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - 'वि' एवं 'परि' उपसर्ग तथा भ्वादिगण में कथित उभयपदी 'अस्' धातु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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