SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० निशीथ सूत्र वैदिक परंपरा में भी रात्रिभोजन के वर्जन के संदर्भ में एक उक्ति बहुत प्रसिद्ध है, जो निम्नांकित है : “अस्तंगते दिवानाथे, आपो रुधिरमुच्यते। . भोजनं मांसवत् प्रोक्तं, मार्कण्डेय-महर्षिणा॥" अर्थात् सूर्य के अस्त हो जाने पर जल आदि पान रक्तपान है तथा खाद्य पदार्थ सेवन मांस के तुल्य है, मार्कण्डेय महर्षि ने ऐसा कहा है। इन सूत्रों में प्राकृत निर्विचिकित्सा समापन शब्द का जो प्रयोग हुआ है, उसका विग्रह इस प्रकार है - विचिकित्सा शब्द संशय या संदेह का वाचक है। 'निर्' उपसर्ग तथा 'विचिकित्सा' शब्द के योग से निर्विचिकित्सा बनता है। 'निर्गता विचिकित्सा यत्र सा निर्विचिकित्सा ' इस विग्रह के अनुसार संदेह रहित या संशय वर्जित भाव को निर्विचिकित्सा कहा जाता है। 'निर्विचिकित्सया सम्यक् आपनः समायुक्तः, इति निर्विचिकित्सा समापन्नः' जो निर्विचिकित्सा या संदेहशून्यता से युक्त होता है, संदेह रहित होता है, उसे निर्विचिकित्सा समापन्न कहा जाता है। 'विचिकित्सा-समापन्न' का आशय - 'स्वयं संदेहशील होने पर भी प्रतिष्ठित पुरुषों के द्वारा कहने पर संदेह रहित बनां हुआ' इस प्रकार समझना चाहिये। आए हुए अन्न जल सहित उद्गार को वापस निगलने का प्रायश्चित्त . जे भिक्खू राओ वा वियाले वा सपाणं सभोयणं उग्गालं आगच्छेज्जा तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइक्कमइ तं उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते, जो तं पच्चोगिलइ पच्चोगिलंतं वा साइजइ॥ ३५॥ कठिन शब्दार्थ - सपाणं सभोयणं - आहार समय खाए पीए गए अन्न जल सहित, उग्गालं - उद्गार - खाए-पीए आहार का पुनः मुँह में आना, आगच्छेज्जा - आए, विगिंचमाणे - बाहर निकालता हुआ, विसोहेमाणे - विशुद्ध - स्वच्छ करता हुआ, उग्गिलित्ता- आए हुए उद्गार को, पच्चोगिलमाणे - वापस निगलता हुआ - गिटता हुआ। भावार्थ - ३५. जो भिक्षु रात में या संध्याकाल में मुँह में आए हुए अन्न-जल सहित उद्गार को मुँह से बाहर निकाल देता है (यतनापूर्वक अचित्त स्थान पर थूक देता है) फिर अपने मुँह को भलीभाँति स्वच्छ कर लेता है वह जिनाज्ञा का अतिक्रमण - उल्लंघन नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy