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________________ दशम उद्देशक - सूर्योदय पूर्व - सूर्यास्तानन्तर वृत्तिलंघन - प्रायश्चित्त २१९ हुआ जिनाज्ञा का अतिक्रमण - उल्लंघन नहीं करता। (जो स्वयं उसको खाता है, औरों को खाने हेतु देता है, वह रात्रिभोजन का प्रतिसेवी होता है) इस प्रकार जो उसका भोग-सेवन करता है अथवा सेवन करते हुए का अनुमोदन करता है। उपर्युक्त रूप में आचरण करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - आर्हत् सिद्धान्त प्रतिपादित भिक्षुचर्या के अनुसार भिक्षु के लिए सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त से पूर्व ही अपने आहारादि समस्त दैनिक कृत्य पूर्ण कर लेना आवश्यक है। सूर्योदय से पूर्व एवं सूर्यास्त के बाद ऐसा करना निषिद्ध है, दोषयुक्त है। उपर्युक्त सूत्रों में संस्तृत, असंस्तृत, निर्विचिकित्स तथा सविचिकित्स भिक्षु के रूप में चतुर्भंगात्मक वर्णन है। 'संस्तारेण - धृति-बलादि सामर्थेन युक्तः - संस्तृतः।' दैहिक शक्ति, प्रतिकूल परिस्थितियों को सहने की क्षमता, स्वस्थता आदि से युक्त भिक्षु को यहाँ संस्तृत कहा गया है, जो उसकी सशक्तता का द्योतक है। लम्बी विहार यात्रा की परिश्रान्ति, रोगादि, तपस्यादि जनित दुर्बलता से युक्त भिक्षु को यहाँ असंस्तृत कहा गया है। • समर्थ भिक्षु सूर्योदय और सूर्यास्त के संबंध में प्रायः संदेहशील नहीं होता, क्योंकि उसे आहारादि लेने की शीघ्रता नहीं होती, वह सहिष्णु होता है। असमर्थ में उसकी अपेक्षा आहारादि लेने की शीघ्रता होती है, प्रतीक्षा करने का धैर्य कम होता है। दोनों ही प्रकार के भिक्षुओं के लिए यदि असंदिग्धावस्था या संदिग्धावस्था में आहार लेने का प्रसंग बन गया हो और वे आहार करने लगे हो, तब यदि उनके ध्यान में आए कि सूरज नहीं उगा है अथवा सूरज छिप गया है तो वे तत्काल मुँह और हाथ में लिया हुआ आहार का कौर तथा पात्र में स्थित आहार को मुँह से, हाथ से एवं पात्र से निकालकर परठ दें और मुँह, हाथ तथा पात्र को भलीभाँति स्वच्छ कर लें तो उन्हें कोई दोष नहीं लगता। मन में वैसी प्रतीति होते हुए भी यदि वे, उस आहार का सेवन करते हों या औरों को तदर्थ आहार देते हों तो उन्हें रात्रिभोजन सेवन का दोष लगता है, क्योंकि सूरज के छिपने से लेकर उसके उगने तक का काल रात्रि माना जाता है। / . रात्रिभोजन का जैन धर्म में सर्वथा निषेध है। पाँच महाव्रतों के विवेचन के अनन्तर उसे पृथकतया विशेष रूप से व्याख्यात किया गया है। वह एक अपेक्षा से छठे महाव्रत का रूप ले लेता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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